Sunday, 25 December 2016

मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

हर दिन की तरह कल सुबह,
आकर उन चन्द परिंदो ने घेरा
हलवाई की दुकान के बाहर
सुबह से ही जैसे डाला था डेरा ||

कढ़ाई लगी, समोसे कचोड़ी छानी गयी
प्रातः बेला मे लोगो का समूह आया
कुछ ने चटनी से, कुछ ने सब्जी से
कुछ ने सूखा ही समोसा खाया ||


परिंदे इंतेजार मे थे कि कब
झूठन फिकेगी दुकान के बाहर
वो चुन लेंगे अपने, अपनो की खातिर
उस गंदगी के ढेर मे जाकर ||

पर आज उस झूठन को बंद
प्लास्टिक के थेलो मे फैकते हुए पाया
निराशा क्या होती है? समझा मैं
जब बेज़ुबानो को ठगा-ठगा सा पाया ||

मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया ||

Monday, 19 December 2016

तू मेरी नज़रों मे ना खुदा हो जाए

अच्छा होगा कि अब तू मुझसे जुदा हो जाए, इससे पहले कि कोई मुझसे खता हो जाए इसी तरह अगर नज़रों से नज़र मिलती रही, डरता हूँ, तू मेरी नज़रों मे ना खुदा हो जाए || कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday, 15 December 2016

मुझे गर्भ मे ही मार दो ||

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

देख मैं तेरे गर्भ मे आ गयी
माँ, कितना सुंदर सा घर है
ना सर्दी है ना गर्मी है
ना ही दुनिया का डर है ||

माँ, एक कंपन सा महसूस होता
दिल की धड़कनो से आपकी
ये रक्त प्रवाह की ध्वनि है
बहती धमनियो मे आपकी ||

कभी कभी महसूस होता है
मुझको अकेलापन यहाँ
धड़कनो से होती है बातें
माँ आप कुछ कहती कहाँ||

मैं सुन लेती हूँ पापा को
वो पास आकर कहते है जब
और आप उस बात को
मन ही मन दोहराती हो जब||

मेरा भी मन होता है, माँ
पापा से बाते करने का
आधी अंश हूँ उनकी भी मैं
उनसे भी थोड़ा जुड़ने का ||

कितनी सुंदर होगी ये दुनियाँ माँ
आप होगे,पापा होंगे, सब होंगे यहाँ

पर कल रात से  माँ
ना जाने क्यों डरी-२ सी हूँ
एक सपना देखा था मैने
वहाँ अपनी जैसी ही कुछ और रूहो को
बाहर की दुनियाँ में तड़पते हुए देखा ||......

ये दुनियाँ बेटियो को आज भी
बढ़ने नही देती
मार देती है कोख में ही, माँ
जीने नही देती||

हर मोड़ पर हर गली में
बहुत कुछ सहना पड़ता है
दर्द सह कर भी क्यो बेटियों को
चुप रहना पड़ता है||

कल आप ही समाचार देख रही थी ना
कि बेटियाँ घर मे भी सुरक्षित नहीं हैं
बाहर ही नही घूमते दुश्मन
कुछ चेहरे घर मे भी छुपे कहीं हैं||

अब मुझे दुनिया से डर
लगने लगा है
आपका अंश अंदर ही अंदर
मरने लगा है ||

हर दिन मरने के लिए इस
जालिम दुनिया मे डाल दो
इससे अच्छा होगा माँ
मुझे गर्भ मे ही मार दो ||

Monday, 12 December 2016

किसी और का हो जाऊ क्यों होने नहीं देता

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय 

वो चेहरा खुद के अलावा कहीं खोने नहीं देता
किसी और का हो जाऊ क्यों होने नहीं देता ||

अजीब सी बेचैनी चेहरे पर रहती है आजकल
तन्हाइयो मे भी मुझको क्यो रोने नहीं देता ||

दिन तो गुजर जाता, जीने की जद्दोजहद मे
रातो को मगर चैन से क्यो सोने नहीं देता ||

सहूलियत खोजने की आदत सी हो गयी है
बोझा ज़िम्मेदारियों का क्यो ढोने नहीं देता ||

Thursday, 8 December 2016

आवारा कुत्ते ..

दफ़्तर से देर रात जब घर को जाता हूँ
चन्द कदमो के फ़ासले मे खो जाता हूँ

सुनसान सी राहे, ना कोई कदमो के निशा
ट्यूब लाइट की रोशनी, ना कोई कहकहा
कुछ अरमान जागते है सुबह मेरे जागने के साथ
रात को पाता हूँ, उन सब का दम निकला

ज़िल्लती, गोशानशीनी का एहसास कराने था वो खड़ा
मै अंदर से सहमा-सहमा पर बाहर से अड़ा||
मुझको नाशाद-ओ-नकारा समझ समझ रात को टोका
कल कुछ आवारा कुत्तो ने  मुझ पर भौंका
मुझे खुद से बात करते पाया होगा, आधी रात को
समाज का दुतकारा हुआ,या बदलने मेरी जात को

मैं अनायास सोचने लगा....

आवारा कुत्ते तो हैं, जिन्हे मेरे वजूद का एहसास है
कोई देखे ना देखे, पर गवाह धरती और आकाश है
कुत्तो के अलावा किसको किसी की इतनी परवाह है
अनजानो की खातिर, क्या इंसान रातो को जगा है

इंसान अपने ही घर भी निडर कहाँ रहता है
जिसे अपना कहे, अपने कहाँ? किसको अपना कहता है
मुझे क़ैद कर देती दीवारो मे, चन्द पानी की बूंदे
कुत्तो को रोके, कहाँ बदनीयत बारिश, सर्द हवा है?
चन्द हैं इलाक़े मे, फिर भी गलियो मे निर्भीक घूमते है
अपना समझते है जिसको भी, बस उन्हे चूमते है


मेरी गली से, संसद की गलियो तक कुत्तो का शोर है
हर एक इलाक़े मे यहाँ कोई कुत्ता ही सिरमौर है
पर भौंक–भौंक कर ये सब, क्या कुछ नया कर पाएँगे
कुत्ते हैं, एक ना एक दिन ,कुत्ते की मौत मर जाएँगे ||






Wednesday, 7 December 2016

बस छू कर लौट आता हूँ

आसमान को छूने को लिया पतंगो का सहारा असहाय सा कहने लगता मैं खुद को बेचारा दरिया मे उतरने से आज तक डरता हूँ बस छू कर लौट आता हूँ हर बार किनारा|| कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

Sunday, 4 December 2016

जब से बदल गया है नोट

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

एक रात समाचार है आया
पाँच सौ हज़ार की बदली माया
५६ इंच का सीना बतलाकर
जाने कितनो की मिटा दी छाया
वो भी अंदर से सहमा सहमा
पर बाहर से है अखरोट
जब से बदल गया है नोट....

व्यापारी का मन डरा डरा है
उसने सोचा था भंडार भरा है
हर विधि से दौलत थी कमाई
लगा हर सावन हरा भरा है
एक ही दिन मे देखो भैया
उसको कैसी दे गया चोट
जब से बदल गया है नोट..

नेता को है रोते पाया
एक दम सब कुछ खोते पाया
रातो को बैठ कर जाग रहा है
कल तक था दिन मे सोते पाया
क्या बाँटेगा अब चुनाव मे
आए कैसे जनता का वोट
जब से बदल गया है नोट...

एक ग़रीब पगार था लाया
मालिक ने हज़ार का नोट थमाया
नोट बड़ा है सोचा था उसने
कई दिनो तक तकिये मे छिपाया
आज गया बाजार मे लेकर
ना राशन मिला ना लंगोट
जब से बदल गया है नोट...

Monday, 28 November 2016

तुझे कबूल इस समय

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

परिस्थितियाँ नही है मेरी माकूल इस समय
तू ही बता कैसे करूँ तुझे कबूल इस समय ||

इशारो मे बोलकर कुछ गुनहगार बन गये है
लब्जो से कुछ भी बोलना फ़िज़ूल इस समय ||

परिवार मे भी जिसकी बनती थी नही कभी
क्यो खुद को समझता है मक़बूल इस समय ||

इंसान से इंसान की इंसानियत है लापता
दिखता नही खुदा मुझे तेरा रसूल इस समय ||

जो ना आए कभी कितने कमाल के दिन थे
याद उनको करके करेंगे हम भूल इस समय ||

Wednesday, 2 November 2016

सच बताएगा कौन?

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

अगर दोनो रूठे रहे, तो फिर मनाएगा कौन?
लब दोनो ने सिले, तो सच बताएगा कौन?

तुम अपने ख़यालो मे, मै अपने ख़यालो मे
यदि दोनो खोए रहे, तो फिर जगाएगा कौन?

ना तुमने मुड़कर देखा, ना मैने कुछ कहाँ
ऐसे सूरते हाल मे, तो फिर बुलाएगा कौन?

मेरी चाहत धरती, तुम्हारी चाहत आसमान
क्षितिज तक ना चले, तो मिलाएगा कौन?

मेरी समझ को तुम, तुम्हे मै नही समझा
इस समझ को हमे, आज समझाएगा कौन?

लड़खडाकर गिरे उठे, ढूढ़ने अपनी मंज़िल
नजरो मे गिरे अगर, तो बचाएगा कौन ?

लब दोनो ने सिले, तो सच बताएगा कौन?

Tuesday, 25 October 2016

देश का बुरा हाल है||

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

हर किसी की ज़ुबाँ पर बस यही सवाल है
करने वाले कह रहे, देश का बुरा हाल है||

नेता जी की पार्टी मे फेका गया मटन पुलाव
जनता की थाली से आज रूठी हुई दाल है||

राशन के थैले का ख़ालीपन  बढ़ने लगा
हर दिन हर पल हर कोई यहाँ बेहाल है||

पैसे ने अपनो को अपनो से दूर कर दिया
ग़रीबी मे छत के नीचे राजू और जमाल है||

आंशु बहा-बहा कर भी थकता कहाँ है वो
ये ग़रीब की अमीर आँखो का कमाल है||

Monday, 24 October 2016

सरहद

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

सरहद, जो खुदा ने बनाई||
मछली की सरहद पानी का किनारा
शेर की सरहद उस जंगल का छोर
पतंग जी सरहद, उसकी डोर ||

हर किसी ने अपनी सरहद जानी
पर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||

मछली मर गयी जब उसे पानी से निकाला
शेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||
ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दी
ना जाने कितनी सरहदे पार कर दी ||

धीरे-२ खुदा की सारी खुदाई नकार दी
सरहदे बना के बोला दुनिया सवार दी

कुछ सरहदे रंग-रूप की, कुछ जाति-धर्म की
कुछ लिंग-भेद की, कुछ अमीरी ग़रीबी की......

धर्मो के आधार पर, मुल्क बना डाले
अपनो के ही ना जाने कितने घर जला डाले||

भाई ने आगन मे दीवार खीच सरहद बना डाली
चारपाई कैसे बाँटता इसलिए होली मे जला डाली||

हर तरफ इंसान की बनाई सरहदों का दौर है
ये ग़लती है हमारी, आरोपी नही कोई और है||

Wednesday, 19 October 2016

देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है

देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है||

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

हर पहर, हर घड़ी रहता है जागता
बिना रुके बिना थके रहता है भागता
कुछ नही रखना है इसे अपने पास
सागर से, नदी से, तालाबो से माँगता
दिन रात सब कुछ लूटाकर, बादल
दाग काला दामन पर सहता यहाँ है||

देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...

हर दिन की रोशनी रात का अंधेरा
जिसकी वजह से है सुबह का सवेरा
अगर रूठ जाए चन्द  लम्हो के लिए
तम का विकराल हो जाएगा बसेरा
खुद जल के देता है चाँद को रोशनी
चाँद की तारीफ से पर जलता कहाँ है||

देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...

मुखहोटा है चेहरे पर, वो चेहरा नही है
सांसो पर उसकी भी पहरा वही है
हर एक सर्कस मे बनता है, जोकर
वो मुस्कराता है जैसे घाव गहरा नही है
हसता है वो दूसरो को हसाने की खातिर
गम उसका आँखो से बहता कहाँ है||

देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...

Thursday, 13 October 2016

कहीं कुछ भी नही है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

सब कुछ है धोखा कुछ कहीं नही है
है हर कोई  खोया ये मुझको यकीं है
ना है आसमां ना ही कोई ज़मीं है
दिखता है झूठ है हक़ीकत नही है||

उपर है गगन पर क्यो उसकी छावं नही है?
है सबको यहाँ दर्द  मगर क्यो घाव नही है?
मै भी सो रहा हूँ, तू भी सो रहा है
ये दिवा स्वपन ही और कुछ भी नही है||

मैने बनाया ईश्वर, तूने भी खुदा बनाया
दोनो का नाम लेकर खुद को है मिटाया
क्या उतनी दूर है, उनको दिखता नही है
ये कहीं और होगे ज़मीन पर नही है||

एक बूँद आँखो से, दूसरी आसमां से
हसाते रुलाते दोनो आकर गिरी है
दोनो की मंज़िल, बस ये ज़मीं है
पानी है पानी और कुछ भी नही है || 

अदालत मे खुदा होगा


जलाल उल्लाह जब रोजे कयामत पर खड़ा होगा
ना जाने हम गुनहगारो का उस दम हाल क्या होगा||
करेंगे नॅफ्सी-नॅफ्सी और जितने भी है पेगेम्बर
मोहम्मद लेकर जब झंडा सिफायत का खड़ा होगा ||
इलाही करबला का खून जब ख़ातून मागेगी
क्या मालूम उस घड़ी उस पल क्या माजरा होगा||
कयामत आएगी एक दिन ज़मीं और आसमाँ ऊपर
मोहब्बत तख्त पर होगे अदालत मे खुदा होगा ||

Friday, 16 September 2016

सफ़र आसान हो जाए

गुमनाम राहो पर एक नयी पहचान हो जाए
चलो कुछ दूर साथ तो, सफ़र आसान हो जाए||

होड़ मची है मिटाने को इंसानियत के निशान
रुक जाओ इससे पहले, ज़हां शमशान हो जाए||

वक़्त है, थाम लो, रिश्तो की बागडोर आज
ऐसा ना हो कि कल, भाई मेहमान हो जाए||

इंसान हो इंसानियत के हक अदा कर दो
ऐसा ना हो ये जिंदगी, एक एहसान हो जाए ||

अपनी ही खातिर आज तक जीते चले आए
आओ चलो किसी और की, मुस्कान हो जाए ||

Monday, 12 September 2016

रातभर तुम्हारे बारे मे लिखा मैने

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

उस रात नीद नही आ रही थी,
कोशिश थी भुला के तेरी यादे बिस्तर को गले लगा सो जाऊ
पर कम्बख़्त तू थी जो कहीं नही जा रही थी||

नीद की खातिर २ जाम लगाए,
सोचा कि सोने के बाद हमारी बातो को मै कागज पर उतारूँगा
एक कागज उठा सिरहाने रख कर मे सो गया||

रातभर तुम्हारे बारे मे लिखा मैने,
सुबह उठा तो थोड़ा परेशान हुआ क़ि गुफ्तगू के निशान गायब
शायद, शब्द सारी रात आँसुओ से धुलते रहे ||

वो गीले कागज मैने संजोए रखे.
क्योकि अगर कभी मिली तुम मुझको कागज दिखाकर के पूछना है
क्या बात करते थे हम? आज तो बता दो ||


Tuesday, 30 August 2016

क्या है किस्मत?

किस्मत
क्या है, आख़िर क्या है किस्मत?
बचपन से एक सवाल मन मे है, जिसका जबाब ढूंढ रहा हूँ|
बचपन मे पास होना या फेल हो जाना या फिर एक दो नंबर से अनुतीर्ण हो जाना, क्या ये किस्मत 
थी?
आपके कम पढ़ने के बाबजूद आपके मित्र के आपसे ज़्यादा नंबर आ जाना, क्या ये किस्मत थी?
स्कूल से लौटते हुए रास्ते मे कुछ पैसे सड़क पर मिल जाना और मित्रो को बताना, खुशी से पागल हो 
जाना, क्या ये किस्मत थी?क्लास मे सबसे प्रखर होने के, सभी प्रकार से मदो से दूर होने के बाबजूद 
कोई गर्लफ्रेंड ना होना, क्या ये किस्मत थी?


पर आज जब किस्मत को परिभाषित करना चाहता हूँ तो समझ नही आता क़ि इसे शब्दो मे कैसे 
वर्णित करूँ?


मेरे लिए तुम्हारी एक झलक ही तो किस्मत थी
जब तुम मुझे देख कर मुस्करा जाती थी, वो किस्मत थी
कुछ सपने इन आँखो ने सजाए थे, उन्हे साकार होते हुए देखना, किस्मत थी
जीवन के हर कदम पर, हर छोटे बड़े फ़ैसले पर मा-पिता का साथ मिला, ये किस्मत थी|


जब मे रास्ता भटक चुका था, चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा था, सभी दिशाए खो चुकी थी, तब तुम 
रोशनी की एक किरण बन कर मेरी पथ प्रदर्शक बनी, ये मेरे लिए किस्मत थी|
जब तुम्हे ढूंड-ढूंड कर थक चुका था, विश्वास, साहस, ज्ञान, विवेक, शील, विचार सब मेरा साथ छोड़ 
गये थे तब ये बोध होना क़ि तुम मुझमे ही निहित हो मेरी किस्मत ही थी||

मुझे जो भी दुख है, क्या वो वास्तव मे दुख है या फिर दुख के आवरण मे किसी कड़वी सच्चाई को 
छुपाने का प्रयास है पर किसी भी झूट के आवरण मे छिपी हुई सच्चाई का अनुबोध होना ही वास्तव मे 
किस्मत थी||

किस्मत
क्या है, आख़िर क्या है किस्मत?

Friday, 26 August 2016

माना मै मर रहा हूँ

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

बेटो के बीच मे गिरे है रिश्‍तो के मायने
कैसे कहूँ कि इस झगड़े की वजह मै नही हूँ |

कुछ और दिन रुक कर बाट लेना ये ज़मीं
माना मै मर रहा हूँ, लेकिन मरा नही हूँ ||

Monday, 22 August 2016

अब रास नही आते

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

हर मोड़ पर मिलते है यहाँ चाँद से चेहरे
पहले की तरह क्यो दिल को नही भाते ||

बड़ी मुद्दतो बाद लौटे हो वतन तुम आज
पर अपनो के लिए कुछ आस नही लाते ||

काटो मे खेल कर जिनका जीवन गुज़रा
फूलो के बिस्तर उन्हे अब रास नही आते||

किसान, चातक, प्यासो आसमा देखना छोड़ो
बादल भी आजकल कुछ खास नही आते ||


Tuesday, 16 August 2016

क्या सचमुच शहर छोड़ दिया

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अपने शहर से दूर हूँ,
पर कभी-२ जब घर वापस जाता हूँ
तो बहाना बनाकर तेरी गली से गुज़रता हूँ

मै रुक जाता हूँ
उसी पुराने जर्जर खंबे के पास
जहाँ कभी घंटो खड़े हो कर उपर देखा करता था

गली तो वैसी ही है
सड़क भी सकरी सी उबड़ खाबड़ है
दूर से लगता नही कि यहाँ कुछ भी बदला है

पर पहले जैसी खुशी नही
वो खिड़की जहाँ से चाँद निकलता था
अब वो सूनी -२ ही रहती है मेरे जाने के बाद से

मोहल्ले वालो ने कहा
कि उसने भी अब शहर छोड़ दिया
शायद इंतेजार करना उसे कभी पसंद ही ना था..

क्या सचमुच शहर छोड़ दिया?

Sunday, 7 August 2016

लाजबाब हो गयी

चाहने वालो के लिए एक ख्वाब हो गयी सब कहते है क़ि तू माहताब हो गयी जबाब तो तेरा पहले भी नही था पर सुना है क़ि अब और लाजबाब हो गयी|| कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday, 4 August 2016

प्यार नाम है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

प्यार नाम है बरसात मे एक साथ भीग जाने का
प्यार नाम है धूप मे एक साथ सुखाने का ||

प्यार नाम है समुन्दर को साथ पार करने का
प्यार नाम है कश्मकस मे साथ डूबने का||

प्यार नाम है दोनो के विचारो के खो जाने का
प्यार नाम है दो रूहो के एक हो जाने का||

प्यार नाम नही बस एक दूसरे को  चाहने का
प्यार नाम है परस्पर प्रति रूप बन जाने का ||

प्यार नाम है एक साथ कुछ कमाने का
प्यार नाम है एक साथ सब कुछ लुटाने का||


Wednesday, 3 August 2016

अगर भगवान तुम हमको, कही लड़की बना देते

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अगर भगवान तुम हमको, कही लड़की बना देते
जहाँ वालों को हम अपने, इशारो पर नचा देते||

पहनते पाव मे सेंडल, लगते आँख मे काजल
बनाते राहगीरो को, नज़र के तीर से घायल ||

मोहल्ले गली वाले, सभी नज़रे गरम करते
हमे कुछ देख कर जीते, हमे कुछ देख कर मरते||

हमे जल्दी जगह बस मे, सिनेमा मे टिकट मिलती
किसी की जान कसम से, हमारी कोख मे पलती ||

अगर नाराज़ हो जाते, कई तोहफे मॅंगा लेते
किसी के तोहफे नही भाते, तो तोहमत लगा देते||

अगर भगवान तुम हमको, कही लड़की बना देते||

Monday, 1 August 2016

फ़ौज़ी का खत प्रेमिका के नाम

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

कितनी शांत सफेद पड़ी
        चहु ओर बर्फ की है चादर
जैसे कि स्वभाव तुम्हारा
        करता है अपनो का आदर||

जिस हिम-शृंखला पर बैठा
        कितनी सुंदर ये जननी है|
बहुत दिन हाँ बीत गये
        बहुत सी बाते तुमसे करनी है||

कभी मुझे लूटने आता है
        क्यो वीरानो का आगाज़ करे
यहाँ दूर-२ तक सूनापन
        जैसे की तू नाराज़ लगे||

एक चिड़िया रहती है यहाँ
        पास पेड़ की शाखो पर
ची ची पर उसकी खो जाता हूँ
        जैसे सुध खोता था तेरी बातो पर||

मै सुलझाता हूँ उलझनो को
        जैसे सुलझाता था तेरे बालो को
कभी फिसल जाता हूँ लेकिन
        जैसे पानी छू गिरता गालो को||

कभी तुझे सोच कर हस लेता
        कभी तुझे सोचकर रो लेता
एक तेरा दुपट्टा  ले आया हूँ
        उसको आंशूओ से धो लेता ||

एक शपथ ली थी आते हुए
        सर्वोपरि राष्ट्रधर्म निभाऊँगा
मिलने का मन तो बहुत है
        पर अभी नही आ पाऊँगा||

Friday, 29 July 2016

मैने तुम पर गीत लिखा है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
एक नही सौ-२ है रिस्ते
है रिस्तो की दुनियादारी,
कौन है अपना कौन पराया
जंजीरे लगती है सारी
तोड़के दुनिया के सब बंधन
तुमको अपना मीत लिखा है||
मैने तुम पर गीत लिखा है…
देख कर तुमको सोचा मैने
क्या इतनी मधुर ग़ज़ल होती है?
जैसे तू ज़ुल्फो को समेटे
वैसे क्या रागो को पिरोती है?
खोकर तेरे अल्हड़पन मे
तेरी धड़कन को संगीत लिखा है||
मैने तुम पर गीत लिखा है…
क्या मोल है तेरा ये बतला,
अपना अभिमान भी बेच दिया
पाने की खातिर तुझको,
मैने सम्मान को बेच दिया
सबकुछ खोकर है तुमको पाना
हार को अपनी जीत लिखा है||
मैने तुम पर गीत लिखा है…

Wednesday, 6 July 2016

क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रही
मुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,
तुम्हारी पहली पसंद थी मै
फिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||

ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमने
पर अपने हृदय से नही,
मै कोई वस्तु तो ना थी
जिसे रख कर भूल जाओगे कहीं
अंतः मन मे सम्हाल कर रखो
बस इतनी सी ही तो है मेरी हसरत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||

तुम्हारे प्यार के सागर से
मिल जाते अगर दो घूट
अमृत समझ कर पी लेती
फिर चाहे जाते सारे बँधन छूट
खुदा से मांगती तो मिल गया होता
तुमसे माँगी थी थोड़ी सी मोहब्बत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||

Tuesday, 5 July 2016

हम बनाएँगे अपना घर

होगा नया कोई रास्ता
  होगी नयी कोई डगर
छोड़ अपनी राह तुम
चली आना सीधी इधर||

मार्ग को ना खोजना
ना सोचना गंतव्य किधर
मंज़िल वही बन जाएगी
साथ चलेंगे हम जिधर||

कुछ दूर मेरे साथ चलो
तब ही तो तुम जानोगी
हर ओर अजनबी होंगे
लेकिन ना होगा कोई डर ||

तुम अपनाकर मुझे
अपना जब बनाओगी सुनो
हम तुम वही रुक जाएँगे
होगा वही अपना शहर||

खुशियाँ, निष्ठा, समर्पण,त्याग, सम्मान की
ईट लगाएँगे जहाँ
प्रेम के गारे से जोड़
हम बनाएँगे अपना घर ||

                         ©  शिवदत्त श्रोत्रिय

Tuesday, 28 June 2016

मेरी जिंदगी मे चले आए है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

हर किसी को आज है, इंतेजार महफ़िल मे मेरा
फिर भी लगता है कि , बस हम ही बिन बुलाए है||

मोहब्बत अगर गुनाह, फिर हम दोनो थे ज़िम्मेदार
महफिले चाँदनी तुम, हम सरे बज्म सर झुकाए है||

खामोशी उनकी कहती है, कुछ टूटा है अन्दर तक
लगता है जैसे मेरी तरह, वो जमाने के सताए है ||

वैसे क्या कम सितम, जमाने ने मुझ पर ढहाए है
जो वो फिर से आज, मेरी जिंदगी मे चले आए है||

Monday, 27 June 2016

रोटी को मोहताज

कल सुबह से घर पर बैठे-२ थक चुका था और मन भी खिन्न हो चुका था शुक्रवार और रविवार का अवकाश जो था, तो सोचा कि क्यो ना कही घूम के आया जाए| बस यही सोचकर शाम को अपने मित्र के साथ मे पुणे शहर की विख्यात F. C. रोड चला गया, सोचा क़ि अगर थोड़ा घूम लिया जाएगा तो मन ताज़ा हो जाएगा, थकान दूर हो जाएगी||

         शाम के करीब ७ बजे थे, बहुत ही व्यस्त जीवनशेली के बीच लोग व्यस्तता के मध्य से समय निकाल शहर की सबसे व्यस्त सड़को पर घूमने आते है,कोई महँगी-२ कार चलाकर आया है तो कोई साथ मे ड्राइवर लाया है| पर यहाँ का नज़ारा भी अपने आप मे बहुत विचित्र होता है, सड़क के दोनो किनारे पगडंदियो पर लोगो का सैलाब और हज़ारो नज़रे कुछ ढूंडती हुई, लगे कि जैसे सबको किसी ना किसी चीज़ की ना जाने कब से तलाश है|

        कुछ ही समय मे मै भी उस भीड़ का हिस्सा बन कर कही खो गया, बस चला जा रहा था एक ही दिशा मे| सड़क के दोनो किनारे दुकानो की कतारे जैसे कि अपने गाँव मे मेले मे होती थी और इन दुकानो पर लोगो का हुजूम लगे की मानो मंदिर मे प्रसाद बॅट रहा है| कुछ दुकाने कपड़ो की खरीदारी के लिए, तो कुछ खाने के शौकीन लोगो के लिए पूरी तरह से समर्पित लग रही थी| थोड़ी देर मै भी इसी भीड़ मे खोया रहा, अपने मित्र के कहने पर एक पोशाक भी खरीद ली और वापस लौटने का निर्णय किया||

        वापस लौटने के लिए मैने जैसे ही बाइक पार्किंग एरिया से बाहर निकली, एक व्यक्ति जो की साइकल पर था पास आकर बोला- "सर, आप एक गुब्बारा खरीद लीजिए मेरी बेटी भूखी है सुबह से कुछ नही खाया है हम दोनो ने, मै भूखा सो सकता हूँ पर बच्चा नही सो पाएगा" | एक पुरानी सी साइकल जिस पर कुछ गुब्बारे लगे थे, साथ मे ही एक गंदा सा थैला लटका था जिसमे शायद कुछ रखा था, साइकल के आंगे फ्रेम पर एक छोटी सी(शायद २ या ३ साल की) लड़की बैठी थी जिसको देख कर लगा की ना जाने कब से भूखी है, मुझे लगा क़ि
ये अचानक मै कहाँ आ गया हूँ ? क्या अभी भी लोग २ वक़्त की रोटी को मोहताज है? क्या लोग अपने आसपास की वास्तविकता को देखना नही चाहते? क्या हम सब अपने आप तक सीमित हो चुके है? कहाँ है रोज़गार गारंटी क़ानून ? ऐसे ही ना जाने कितने सवालो को अपने मन मे लिए, उस साइकल वाले व्यक्ति के हाथ मे कुछ पैसे थमा कर वापस चला घर आया||

Sunday, 19 June 2016

तब तक समझो मे जिंदा हूँ

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

जब तक आँखो मे आँसू है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

धरती का सीना चीर यहाँ
निकाल रहे है सामानो को
मंदिर को ढाल बना अपनी
छिपा रहे है खजानो को|
इमारतें बना के उँची
छू बैठे है आकाश को
उड़ रहे हवा के वेग साथ
जो ठहरा देता सांस को|
जब तक भूख ग़रीबी चोराहो पर
तब तक मै शर्मिंदा हूँ||

जब तक आँखो मे आँसू  है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

जनता का जनता पर शासन
जनता से है छीन लिया
जनता को जनता से डराए
जनता ने जब उसे चुन लिया|
घोर अंधेरा गलियो मे
चोराहो पर सन्नाटा है
निर्दोष गवां दे जान यहाँ
आरोपी समझे वो टाटा है|
संसद के सिंघासन बैठा
धृतराष्ट्र कहे मै अंधा हूँ||

जब तक आँखो मे आँसू है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

Friday, 17 June 2016

मुझे मेरी सोच ने मारा

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

शिकायत है मुझे दिन से
जो की हर रोज आता है
अंधेरे मे जो था खोया
उसको भी उठाता है
किसी का चूल्हा जलता हो
मेरी चमड़ी जलाता है |
कोई तप कर भी सोया है,
कोई सोकर थका हारा ||

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

मै जन्मो का प्यासा हूँ
नही पर प्यास पानी की
ना रह जाए अधूरी कसर
कोई बहकी जवानी की
उतना बदनाम हो जाऊं
वो नायिका कहानी की|
सागर मे नहाता हूँ
मुझे गंगाजल लगे खारा ||

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

Friday, 10 June 2016

सहारा ना था

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

वक़्त को क्यो फक़्त इतना गवारा ना था
जिसको भी अपना समझा, हमारा ना था||

सोचा की तुम्हे देखकर आज ठहर जाए
ना चाह कर भी भटका पर, आवारा ना था||

धार ने बहा कर हमे परदेश लाके छोड़ा
जिसे मंज़िल कह सके ऐसा, किनारा ना था||

दुआए देती थी झोली भरने की जो बुढ़िया
खुद उसकी झोली मे कोई, सितारा ना था ||

सारी जिंदगी सहारा देकर लोगो को उठाया
उसका भी बुढ़ापे मे कोई, सहारा ना था ||

Monday, 6 June 2016

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी


कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी
पर कैसे कह दूं हमारी थी एक जिंदगी ||

जमाने से जहाँ मेने कई जंग जीत ली
वही मोहब्बत से हारी थी एक जिंदगी ||

मुझको ना मिली वो मेरा कभी ना थी
तुमने जो ठुकराई तुम्हारी थी जिंदगी ||

महल ऊँचा पर आंशु किसी के फर्स पर
तब मुझको ना गवारी थी एक जिंदगी ||

कलम की उम्र मे पत्थर उठा रही है
कितनी किस्मत बेचारी थी एक जिंदगी||

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी..

Thursday, 19 May 2016

दीवाने की बातें क्यूँ

वो शायर था, वो दीवाना था, दीवाने की बातें क्यूँ

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

मस्ती का तन झूम रहा, मस्ती मे मन घूम रहा
मस्त हवा है मस्त है मौसम, मस्ताने की बाते क्यो

इश्क किया है तूने मुझसे, किया कोई व्यापार नही
सब कुछ खोना तुमको पाना, डर जाने की बाते क्यो

बड़ी दूर से आया है, तुझे बड़ी दूर तक जाना है
मंज़िल देखो आने वाली, रुक जाने की बाते क्यो

रूठे दिल को मिला रहा, गीतो से अपने जिला रहा
घर-2 दीप जलाकर फिर, जल जाने की बाते क्यो

होटो के प्यालो मे डूबा, तेरे मद मे अब तक झूमा
नजरो मे नशा लूटे है अदा, मयखाने की बाते क्यो|

वो शायर था, वो दीवाना था, दीवाने की बातें क्यूँ||

Tuesday, 17 May 2016

कारवाँ गुजर गया

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे
कत्ल करने वाले, अख़बार देखते रहे|

तेरी रूह को चाहा, वो बस मै था
जिस्म की नुमाइश, हज़ार देखते रहे||

मैने जिस काम मे ,उम्र गुज़ार दी
कैलेंडर मे वो, रविवार देखते रहे||

जिस की खातिर मैने रूह जला दी
वो आजतक मेरा किरदार देखते रहे||

सूखे ने उजाड़ दिए किसानो के घर
वो पागल अबतक सरकार देखते रहे ||

कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे

Sunday, 15 May 2016

अब शृंगार रहने दो

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|

अगर  माँग हे सीधी
या फिर जुल्फे है उल्झी
ना करो जतन इतना
समय जाए लगे सुलझी
दौड़ी चली आओ तुम,
ज़ुल्फो को बिखरा रहने दो

जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|

कुछ सोई नही तुम
आधी जागी चली आओ
सुनकर मेरी आवाज़
ऐसे भागी चली आओ
जल्दी मे अगर छूटे कोई गहना,
या मुक्तहार रहने दो |


जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|

बिना भंवरे क्या रोनक
गुल की गुलशन मे
ना टूटे साथ जन्मो का
ज़रा सी अनबन मे
गुल सूखे ना डाली पर,
इसे गुलजार रहने दो||

जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|

Wednesday, 11 May 2016

अनजान लगता है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अब इन राहो पर सफ़र आसान लगता है
जो गुमनाम है कही वही पहचान लगता है||

जिस शहर मे तुम्हारे साथ उम्रे गुज़ारी थी
कुछ दिन से मुझको ये अनजान लगता है||

कपड़ो से दूर से उसकी अमीरी झलकती है
मगर चेहरे से वो भी बड़ा परेशान लगता है||

मुझको देख कर भी तू अनदेखा मत कर
तेरा मुस्करा देना भी अब एहसान लगता है||

मिलते है घर मे हम सब होली दीवाली पर
सगा भाई भी मुझको अब मेहमान लगता है||

जिंदा थी तो कभी माँ का हाल ना पूछा
तस्वीर मे अब चेहरा उसे भगवान लगता है||

Tuesday, 10 May 2016

वो कैसा होगा शहर

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

जहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घर
कैसी होगी ज़मीन, वो कैसा होगा शहर

हाथो मे हाथ रहे, तू हरदम साथ रहे
कुछ मै तुझसे कहूँ, कुछ तू मुझसे कहे
मै सब कुछ सहुं, तू कुछ ना सहे
सुबह शुरू तुझसे, ख़त्म हो तुझपे सहर
जहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घर ...

कुछ तुम चलोगी, तो कुछ मै चलूँगा
कभी तुम थकोगी, तो कभी मै रुकुंगा
मंज़िल है एक ही, क्यो अकेला बढ़ुंगा
चलते रुकते योही, कट जाएगा सफ़र
जहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घर ...

बात मे बाते हो, रात मे फिर राते हो
गम आए ना कभी, खुशियो की बरसाते हो
नज़रो मे हो चेहरा तेरा, ख्वाबो मे भी मुलाक़ते हो
साथ रहने की कोई कसमे ना हो, ना हो बिछड़ने का डर
जहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घर ..

Sunday, 1 May 2016

मशहूर हो गये

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

जो भी आए पास
           सब दूर हो गये
तोड़ा हुए बदनाम
           तो मशहूर हो गये||

कल तक जो दूसरो से
          माँगकर के जिंदा थे
जीता चुनाव आज जो
          वो हुजूर हो गये||

हम भी तो कल तक
          दफ़न थे चन्द पन्नो मे
बाजार मे बिके जो
          सबको मंजूर हो गये||

पहाड़ो से टकराकर के
          मैने चलना सीखा था
सीसे के दिल के आंगे
          हम चकनाचूर हो गये||

तुमको बड़ा गुमान था
          हुस्न की जागीर पर
किसी की आँखो के
          हम भी नूर हो गये||

Monday, 25 April 2016

जिंदगी के उस मोड़ पर

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय


जिंदगी के उस मोड़ पर(यह कविता एक प्रेमी और प्रेमिका के विचारो की अभिव्यक्ति करती है जो आज एक दूसरे से बुढ़ापे मे मिलते है ३० साल के लंबे अरसे बाद)

जिंदगी के उस मोड़ पर आकर मिली हो तुम
की अब मिल भी जाओ तो मिलने का गम होगा|

माना मेरा जीवन एक प्यार का सागर
कितना भी निकालो कहा इससे कुछ कम होगा||

चाँदनी सी जो अब उगने लगी है बालो मे
माना ये उम्र तुम पर अब और भी अच्छी लगती है|

अब जो तोड़ा सा तुतलाने लगी हो बोलने मे
छोटे बच्चे सी ज़ुबान कितनी सच्ची लगती है|

सलवटें जो अब पढ़ने लगी है गालो पर तुम्हारे
लगता है कि जैसे रास्ता बदला है किसी नदी ने ||

जो हर कदम पर रुक-२ कर सभलने लगी हो
सोचती तो होगी कि सभालने आ जाऊं कही मे |

तुम्हारी नज़र भी अब कुछ कमजोर हो गयी है
जैसे कि मेरा प्यार तुम्हे दिखा ही नही |

मिलने की चाह थी मुझे जो अब तक चला हूँ
विपदाए लाखो आई पर देखो रुका ही नही ||

पर फिर भी ...... 

जिंदगी के उस मोड़ पर आकर मिली हो तुम
की अब मिल भी जाओ तो मिलने का गम होगा|

Wednesday, 20 April 2016

कैसा होगा सफ़र

आफिस का अंतिम दिन था, छोड़ना था शहर
बस यही सोचता हूँ, कि कैसा होगा सफ़र...

उम्मीदे थी बहुत सारी, निकलना था दूर
सुबह से ही जाने क्यो, छाया था सुरूर
बैठे-२ हो गयी देखो सुबह से सहर
            कैसा होगा सफ़र......

शाम कल की थी, तब से थे तैयार
साथ सब ले लिया, जिस पर था अधिकार
चल दिए अकेले ही पर नयी थी डगर
            कैसा होगा सफ़र......

सब कुछ लिया, या कुछ छोड़ दिया
चला राह वापसी, खुद को जोड़ दिया
डरता हूँ पर मै, कुछ रह ना जाए अधर
           कैसा होगा सफ़र......

कभी आया इधर मैं, कभी गया उधर
कितनी राहे चला, फिर भी मंज़िल किधर
खो ना जाऊ यहाँ, मुझको लगता है डर
          कैसा होगा सफ़र......

Thursday, 7 April 2016

क्रोध

क्रोध तन को जलाए,
           क्रोध से कोन जीत पाए
क्रोध की ज्वाला ऐसी,
           सूरज की गर्मी जैसी
क्रोध से तन ऐसे कापे,
           सागर मे ज्वार जैसे जागे
क्रोध मे सारे रिश्ते भुलाए,
           क्रोध मे कोई साथ न आए
क्रोध मे जो नर जला है
            चिताअग्नि मे जलने से बुरा है|

Saturday, 2 April 2016

कुछ गवाया ही नही

जख्म गहरा था मगर, हमने दिखाया ही नही
उन्होने पूछा ही नही, हमने बताया ही नही|

फिर जिन यादो को, भुलाने मे जीवन बिताया
लेकिन हमने कहाँ, यादो ने सताया ही नही|

मरके भी वो कब्र मे, कब से जाग रहा है
पर जाने वाला तो कभी, लौट कर आया ही नही|

इतने मशरूफ थे हम, चाहत मे तुम्हारी
दुनिया ने कहाँ कि, नाम कमाया ही नही|

महल से निकल कर, सड़को तक आ गये
फिर भी कहा कि, इश्क़ मे कुछ गवाया ही नही|

बात हो रही है

किसी के दिन की बात हो रही है,
            किसी की रात की बात हो रही है|

कही दर्द की बात हो रही है,
            कही ज़ज्बात की बात हो रही है|

कही दो बदन सुलग रहे है तो,
          कही आशुओं की बरसात हो रही है|

हर बाजी जीतने वाला भी सोचे,
          क्यो ये मेरे साथ हो रही है|

आज तक जो खामोश रहा,
          क्यो महफ़िल मे उसकी बात हो रही है|

कही कहानी का अंत हो रहा है,
          तो कही नयी सुरुआत हो रही है ||

Wednesday, 23 March 2016

माँ की आँखो का इंतेजार थे

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

तुमने कहा तो चल दिए,
         कलम तकिये पर छोड़ कर
हमने तो ना कभी कहा
         इस जंग को तैयार थे ||

जो मिला कुछ जानदार
         साथ उसको ले लिया
घर पर जो छोड़ दिया
         वो धारदार हथियार थे ||

किसी की मोहब्बत ने हमे
          शायर बना के छोड़ा
वरना तोअब तक आदमी
         हम भी ज़रा बेकार थे |
     
एक बार चढ़े हम मंच पर
         दूर-२ तक हमको सुन लिया
वैसे कुछ दिन पहले तक
         हम बिन पढ़े अख़बार थे||

ये ना सोचो की हमारी
        किसी को परवाह नही
हर शाम दरवाजे पर बैठी
        माँ की आँखो का इंतेजार थे||

Tuesday, 22 March 2016

मेरी खुशी बन गयी

तुम्हे देखा तो लगा,
कि कुछ मिल गया
जब कुछ मिला,
तो पाने की चाहत बढ़ी
जब चाहत बढ़ी,
तो हिम्मत बढ़ी
हिम्मत बढ़ी तो,
तुम्हारे पास आ बैठे
जब पास आ बैठे,
तो कुछ बात करना चाही
बात करना चाही,
तो शब्द ना मिले
शब्द ना मिले तो,
भाव मन मे रह गये
भाव मन मे रहे
तो मन उदास था
जो उदास मन मे था
उसे कलम ने उकेरा
कलम के चलने से,
पन्ने भर गये
पन्ने भर गये,
तो कलम खुश थी
कलम खुश थी
तो मै खुश था
इस तरह तुम ना जानते हुए भी
      मेरी खुशी बन गयी,

क्या -२ राज बताते लोग

धूप से छाँव चुराते लोग,
          हसते और हसाते लोग|

भाई से कभी मिला नही,
          दुश्मन से मिलवाते लोग|

भक्त बैठकर सिंघासन पर,
          ईश्वर को नचावाते लोग|

नेता का सिर झुका हुआ,
         क्या-२ काम करते लोग|

घूँघट से शायद देख रही,
          खुद से ही शरमाते लोग|

मैने चलना छोड़ दिया है,
          फिर भी आते-जाते लोग|

"शिव" की खामोशी चीख रही,
         क्या -२ राज बताते लोग||

Sunday, 6 March 2016

"माँ" तेरे पास तक


         कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

उठा कर हिमालय हाथ मे,
              कलम का एक रूप दूँ
 घोलकर सागर मे स्याही,
              उससे फिर एक बूँद लूँ|
कागज बना लूँ जोड़कर,
              धरती से आकाश तक
फिर भी लिख सकता नही,
              "माँ" तेरे पास तक ||

Sunday, 28 February 2016

गम नही होते

         कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अगर तुम नही होती
        या फिर हम नही होते,
फिर जिंदगी मे मेरी
        इतने गम नही होते ||

मई जून की गरमी मे
        जलता है जब बदन,
कैसे कह दूँ कि अश्क
        मेरे नम नही होते||

जो मिलते है घाव
        फक़्त मोहब्बत मे,
इन जख़्मो के कही
        मरहम नही होते||

जो आशिक़ी मे तेरी
        भरे कलम ने पन्ने,
कितना भी जला दूं मै
        ये कम नही होते ||


जब से मैने जाना
        "माँ" क्या होती है,
ख्वाबो मे मेरी तुम
        हर दम नही होते||

Sunday, 21 February 2016

ये बार बार लिख दूँ


          कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

तिरछी हुई नज़र पर
ये बार बार लिख दूँ,
तेरी हर एक अदा पर
गज़ले हज़ार लिख दूँ ||

हर दिन तेरी कशिश मे
कुछ इस तरह से खोया,
लिखना चाहूँ मे जुमे रात
और सोमवार लिख दूँ ||

तेरे लिए मोहब्बत मे
क्या क्या लुटाने आया
कोई पूछ ले अगर तो
          मैं बेशुमार लिख दूँ ||

नफ़रत भारी निगाहो से
सबको देखती है दुनिया,
जो तुझको देख लूँ
तो प्यार प्यार लिख दूँ ||

एक बार तो ठहरो
मंज़िल के रास्ते मे,
चलती हुई निगाहो पर
बस इंतेजार लिख दूँ ||

तिरछी हुई नज़र पर
ये बार बार लिख दूँ,
तेरी हर एक अदा पर
गज़ले हज़ार लिख दूँ ||

Friday, 5 February 2016

जख्म बहुत ही गहरा है

        कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

कैसे दिखा दूँ, जख्म ये दिल का
ये जख्म बहुत ही गहरा है,
जुदाई तेरी जख्म बड़ाती
मरहम तेरा चेहरा है ||

ना जाने मैं कैसे तुझसे जुड़ा
    ये सवाल बहुत ही गहरा है,
तुमको सांसो मै छिपालू
    पर सांसो पर भी पहरा है||

तुम्हे सुनाता अपनी आवाज़
    शायद तुझे कुछ आए याद,
मेरी आवाज़ो का अर्थ ना निकला
    लगता है सनम मेरा बहरा है ||

ख्वाबों मै तुम मेरे ख्वाब मै आयीं
    वो ख्वाब बहुत ही गहरा था
घूँघट पहने तुम बैठी थी
    माथे पर मेरे सेहरा था ||

इससे पहले की घूँघट उठता
    मेरा थोड़ा सा गम घटता,
टूट गया वो मेरा सपना
    वक़्त जहा पर ठहरा था||

कैसे दिखा दूँ, जख्म ये दिल का
ये जख्म बहुत ही गहरा है||