Thursday 12 January 2017

याद से निकलकर

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

तेरी यादो का तकिया लगा कर, 
हर रात सोता हूँ 
कभी तो ख्वाबो में आओगी तुम,
संभल- संभलकर 
या जब सुबह पहली किरण से 
नींद टूट जाएगी
तुम हकीकत बन जाओगी मेरी
याद से निकलकर ॥

माँ-बाप के पैर छुए हुआ एक जमाना

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

छोड़ा घर सोच कर, किस्मत आजमाना 
पर क्यों ना लौट मैं, कोई करके बहाना 
जन्नत ढूंढता था, जन्नत से दूर होकर 
 माँ-बाप के पैर छुए हुआ एक जमाना ॥

Tuesday 10 January 2017

बेटी है नभ में जब तक

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

बेटी तुम्हारे आँचल में जहां की खुशियां भर देती है
तुम्हारी चार दीवारों को मुकम्मल घर कर देती है ॥

बेटी धरा पर खुदा  की कुदरत  का नायाब नमूना है
बेटी न हो जिस घर में, उस घर का आँगन सूना है ॥

बेटी माँ से ही, धीरे-धीरे माँ होना सीखती जाती है
बेटी माँ को उसके बचपन का आभास कराती है ॥

बेटी ने जुजुत्सा, सहनशीलता, साहस पिता से पाया
दया, स्नेह, विनम्रता, त्याग उसमे माँ से समाया ॥

बेटी, बाप की इज्जत,और माँ की परछाई होती है
फूल बिछड़ने  पर गुलशन से सारी बगिया रोती है ॥

बेटी को जब माँ बाप ने, घर से विदा किया होगा
महसूस करो कि सीने से कलेजा अलग किया  होगा ॥

किसी मुर्ख ने आज फिर बेटी को कोख में मार दिया
अपने हाथो, अपनी नाजुक वंश बेल को काट दिया ॥

बीज नहीं होगा जब बोलो, तुम  कैसे पेड़ लगाओगे
बेटी मार के जिन्दा हो, किस मुह से बहू घर लाओगे ॥

अन्नपूर्णा कहा मुझे पर, भूंख मिटा न पायी अब तक
तुम भी तुम बन कर जिन्दा हो, बेटी है नभ में जब तक ॥


Friday 6 January 2017

अब बाग़बान नही आता

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

हम उस गुलशन के गुल बन गये
जहाँ अब बाग़बान नही आता
कुछ पत्ते हर रोज टूट कर, बिखर जाते है
पर कोई अब समेटने  नही आता ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

कुछ डाली सूख रही  है यहाँ
कुछ पर पत्ते मुरझाने लगे है
हवा ने कुछ को मिटटी में मिला दिया है
कुछ किसी के इन्तेजार में है ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

वक़्त के थपेड़ो से कुछ उधड़ा -२ सा है
हरा-भरा है मगर  उजड़ा-२ सा है
अमरबेल ने आम पर चढाई कर दी है
पर उसे अब रोकने वाला नहीं कोई ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

जिससे मिला था जीवन उससे दूर जाना जरूरी है
हाय, जैसे बेटी को ससुराल जाना जरूरी है
बड़े पेड़ की छाव में नए पौधे सूखने लगे है
किससे कहे की उन्हें अब घर बदलने की जरूरत है?
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

कोई भी अंदर आकर उपद्रव मचाता है
घोसले उजाड़े है, निशाँ मिटाता है
आहत  है गुलिस्ता, बनकर अहाता  राहगीरो को
कभी गुरूर में था, पावन शिवाला है

लगता है बेबस सा कुछ कह  नहीं सकता
बिना बाग़बान के गुलशन रह नहीं सकता ॥







Wednesday 4 January 2017

बढ़ाए रखी है दाढ़ी..

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

चेहरा छिपाने, चेहरे पर लगाए रखी है दाढ़ी
माशूका की याद मे कुछ बढ़ाए रखी है दाढ़ी||

दाढ़ी सफेद करके, कुछ खुद सफेद हो लिए
कितने आसाराम को छिपाए रखी है दाढ़ी ||

दाढ़ी बढ़ा कर कुछ, दुर्जन डकैत कहाने लगे
कुछ को समाज मे साधु बनाए रखी है दाढ़ी ||

चोर की दाढ़ी मे तिनका, अब कहाँ मिलता है
चोरों ने तो यहाँ कब की कटाए रखी है दाढ़ी ||

कद नही है बढ़ता , दाढ़ी बढ़ा कर देख 'शिव'
बचपना चेहरे का खुद मे छिपाए रखी है दाढ़ी ||


Sunday 1 January 2017

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कुछ बीत गया, कोई छूट गया
कुछ नया मिला, कोई रूठ गया
डोर समझ कर जिसे सम्हाला
एक धागा था जो टूट गया||

मान जाए रूठे, जुड़ जाए टूटे
छूटने वालो से हो जब बंधन ..

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||

आक्रोशित है, उद्वेलित है नर
व्याप्त हुआ, क्यो इतना डर?
मन-मंदिर मे अंधकार कर
जला रहा क्यों बाहर के घर?

क्रोध को शांत करे वो अपने
मन उसका फिर हो जब चंदन...

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||

एक फूल, मंदिर के अंदर
एक फूल, समाधि के ऊपर
रंग वही है गंध वही है
वो नही बदलता हो निष्ठुर

गिरगिट का खेल छोड़ कर के
मानव मिटाए सबका जब क्रंदन..

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||