Wednesday 30 August 2017

कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को


कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

जितना भी कुछ भुलाने का
दिन में प्रयास किया जाता है
अनायास ही सब एक-एक कर
मेरे सम्मुख चला आता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....

असंख्य तारे जब साथ होते है
उस आसमान की छत पर
मैं खुद को ढूढ़ने लगता हूँ तब
किसी कागज़ के ख़त पर
धीरे धीरे यादों का एक फिर
घेरा सा बनता है
कोई किरदार जी उठता
कोई किरदार मरता है
मुकम्मल नहीं होता है यादों का बसेरा
रेत सा  बिखरता है
कुछ समेटकर उससे सम्हल जाता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....

सन्नाटे में जब तुम्हे सुनने की
आस जगती है
तुम्हारे लम्स को सोचूँ तो फिर
प्यास लगती है
कभी असीमित आकाश में वो
थक चुका पंछी
नहीं धरती कही उसको अब
पास दिखती है
एक आँख झूमती मस्ती में दूजी
उदास लगती है ||
जब एक आँख से हिमखंड
पिघल जाता है ||
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को.... 

Sunday 20 August 2017

बहुत बेशर्म है या ज़िद्दी

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

वो लड़का जो कभी किताबों से मोहब्बत करता था
सुना है, आजकल मोहब्बत में किताबें लिख रहा हैं

पहले रास्ते की किसी सड़क के किसी मोड़ पर
या शहर के पुराने बाज़ार की किसी दुकान के काँच की दीवारों में कैद
किसी किताब को दिल दे बैठता था ||

आजकल वो अपना दिल हथेली पर रख कर घूमता है
उसी सड़क के मोड़ पर किसी दूकान या शॉपिंग मॉल के
एस्केलेटर से उतरती हुई लड़की को दिल देना चाहता है ||

किताबो के कवर की तरह ही वो चहरे पढ़ना चाहता है
और शायद वही गलती जानबूझकर दोहराना चाहता है
जो कि किताबों के कवर देखकर किताब उठाकर उसके अंदर की
कहानियो में फस कर करता था |
अब सड़क किनारें किताबों की दुकानों के प्रति उसका मोह
भंग हो चूका है
उसकी सोच का स्तर अब गिर चुका है या फिर किताबो का,
जब से उसने सड़क के फुटपाथ पर किताबो को बिकते हुए देखा है
जहाँ से वो कभी जूते खरीदा करता था ||

वो आज भी पढ़ना चाहता है, मगर केवल चहरे ...
पर शायद उसने ये हुनर सीखा नहीं है, वो पागल अभी भी
हर सीने में दिल ढ़ूढ़ने निकल पड़ता है ||
हर बार उसे पत्थर मिले है सीने में , पर पागल
ठोकरों से सम्हलता कहाँ है ?
लगता है बहुत बेशर्म है या ज़िद्दी।|