Monday 24 October 2016

सरहद

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

सरहद, जो खुदा ने बनाई||
मछली की सरहद पानी का किनारा
शेर की सरहद उस जंगल का छोर
पतंग जी सरहद, उसकी डोर ||

हर किसी ने अपनी सरहद जानी
पर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||

मछली मर गयी जब उसे पानी से निकाला
शेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||
ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दी
ना जाने कितनी सरहदे पार कर दी ||

धीरे-२ खुदा की सारी खुदाई नकार दी
सरहदे बना के बोला दुनिया सवार दी

कुछ सरहदे रंग-रूप की, कुछ जाति-धर्म की
कुछ लिंग-भेद की, कुछ अमीरी ग़रीबी की......

धर्मो के आधार पर, मुल्क बना डाले
अपनो के ही ना जाने कितने घर जला डाले||

भाई ने आगन मे दीवार खीच सरहद बना डाली
चारपाई कैसे बाँटता इसलिए होली मे जला डाली||

हर तरफ इंसान की बनाई सरहदों का दौर है
ये ग़लती है हमारी, आरोपी नही कोई और है||

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