Sunday 25 December 2016

मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

हर दिन की तरह कल सुबह,
आकर उन चन्द परिंदो ने घेरा
हलवाई की दुकान के बाहर
सुबह से ही जैसे डाला था डेरा ||

कढ़ाई लगी, समोसे कचोड़ी छानी गयी
प्रातः बेला मे लोगो का समूह आया
कुछ ने चटनी से, कुछ ने सब्जी से
कुछ ने सूखा ही समोसा खाया ||


परिंदे इंतेजार मे थे कि कब
झूठन फिकेगी दुकान के बाहर
वो चुन लेंगे अपने, अपनो की खातिर
उस गंदगी के ढेर मे जाकर ||

पर आज उस झूठन को बंद
प्लास्टिक के थेलो मे फैकते हुए पाया
निराशा क्या होती है? समझा मैं
जब बेज़ुबानो को ठगा-ठगा सा पाया ||

मैं मुस्कराने गया था, पर मुस्करा नही पाया ||

Monday 19 December 2016

तू मेरी नज़रों मे ना खुदा हो जाए

अच्छा होगा कि अब तू मुझसे जुदा हो जाए, इससे पहले कि कोई मुझसे खता हो जाए इसी तरह अगर नज़रों से नज़र मिलती रही, डरता हूँ, तू मेरी नज़रों मे ना खुदा हो जाए || कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday 15 December 2016

मुझे गर्भ मे ही मार दो ||

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

देख मैं तेरे गर्भ मे आ गयी
माँ, कितना सुंदर सा घर है
ना सर्दी है ना गर्मी है
ना ही दुनिया का डर है ||

माँ, एक कंपन सा महसूस होता
दिल की धड़कनो से आपकी
ये रक्त प्रवाह की ध्वनि है
बहती धमनियो मे आपकी ||

कभी कभी महसूस होता है
मुझको अकेलापन यहाँ
धड़कनो से होती है बातें
माँ आप कुछ कहती कहाँ||

मैं सुन लेती हूँ पापा को
वो पास आकर कहते है जब
और आप उस बात को
मन ही मन दोहराती हो जब||

मेरा भी मन होता है, माँ
पापा से बाते करने का
आधी अंश हूँ उनकी भी मैं
उनसे भी थोड़ा जुड़ने का ||

कितनी सुंदर होगी ये दुनियाँ माँ
आप होगे,पापा होंगे, सब होंगे यहाँ

पर कल रात से  माँ
ना जाने क्यों डरी-२ सी हूँ
एक सपना देखा था मैने
वहाँ अपनी जैसी ही कुछ और रूहो को
बाहर की दुनियाँ में तड़पते हुए देखा ||......

ये दुनियाँ बेटियो को आज भी
बढ़ने नही देती
मार देती है कोख में ही, माँ
जीने नही देती||

हर मोड़ पर हर गली में
बहुत कुछ सहना पड़ता है
दर्द सह कर भी क्यो बेटियों को
चुप रहना पड़ता है||

कल आप ही समाचार देख रही थी ना
कि बेटियाँ घर मे भी सुरक्षित नहीं हैं
बाहर ही नही घूमते दुश्मन
कुछ चेहरे घर मे भी छुपे कहीं हैं||

अब मुझे दुनिया से डर
लगने लगा है
आपका अंश अंदर ही अंदर
मरने लगा है ||

हर दिन मरने के लिए इस
जालिम दुनिया मे डाल दो
इससे अच्छा होगा माँ
मुझे गर्भ मे ही मार दो ||

Monday 12 December 2016

किसी और का हो जाऊ क्यों होने नहीं देता

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय 

वो चेहरा खुद के अलावा कहीं खोने नहीं देता
किसी और का हो जाऊ क्यों होने नहीं देता ||

अजीब सी बेचैनी चेहरे पर रहती है आजकल
तन्हाइयो मे भी मुझको क्यो रोने नहीं देता ||

दिन तो गुजर जाता, जीने की जद्दोजहद मे
रातो को मगर चैन से क्यो सोने नहीं देता ||

सहूलियत खोजने की आदत सी हो गयी है
बोझा ज़िम्मेदारियों का क्यो ढोने नहीं देता ||

Thursday 8 December 2016

आवारा कुत्ते ..

दफ़्तर से देर रात जब घर को जाता हूँ
चन्द कदमो के फ़ासले मे खो जाता हूँ

सुनसान सी राहे, ना कोई कदमो के निशा
ट्यूब लाइट की रोशनी, ना कोई कहकहा
कुछ अरमान जागते है सुबह मेरे जागने के साथ
रात को पाता हूँ, उन सब का दम निकला

ज़िल्लती, गोशानशीनी का एहसास कराने था वो खड़ा
मै अंदर से सहमा-सहमा पर बाहर से अड़ा||
मुझको नाशाद-ओ-नकारा समझ समझ रात को टोका
कल कुछ आवारा कुत्तो ने  मुझ पर भौंका
मुझे खुद से बात करते पाया होगा, आधी रात को
समाज का दुतकारा हुआ,या बदलने मेरी जात को

मैं अनायास सोचने लगा....

आवारा कुत्ते तो हैं, जिन्हे मेरे वजूद का एहसास है
कोई देखे ना देखे, पर गवाह धरती और आकाश है
कुत्तो के अलावा किसको किसी की इतनी परवाह है
अनजानो की खातिर, क्या इंसान रातो को जगा है

इंसान अपने ही घर भी निडर कहाँ रहता है
जिसे अपना कहे, अपने कहाँ? किसको अपना कहता है
मुझे क़ैद कर देती दीवारो मे, चन्द पानी की बूंदे
कुत्तो को रोके, कहाँ बदनीयत बारिश, सर्द हवा है?
चन्द हैं इलाक़े मे, फिर भी गलियो मे निर्भीक घूमते है
अपना समझते है जिसको भी, बस उन्हे चूमते है


मेरी गली से, संसद की गलियो तक कुत्तो का शोर है
हर एक इलाक़े मे यहाँ कोई कुत्ता ही सिरमौर है
पर भौंक–भौंक कर ये सब, क्या कुछ नया कर पाएँगे
कुत्ते हैं, एक ना एक दिन ,कुत्ते की मौत मर जाएँगे ||






Wednesday 7 December 2016

बस छू कर लौट आता हूँ

आसमान को छूने को लिया पतंगो का सहारा असहाय सा कहने लगता मैं खुद को बेचारा दरिया मे उतरने से आज तक डरता हूँ बस छू कर लौट आता हूँ हर बार किनारा|| कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

Sunday 4 December 2016

जब से बदल गया है नोट

कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

एक रात समाचार है आया
पाँच सौ हज़ार की बदली माया
५६ इंच का सीना बतलाकर
जाने कितनो की मिटा दी छाया
वो भी अंदर से सहमा सहमा
पर बाहर से है अखरोट
जब से बदल गया है नोट....

व्यापारी का मन डरा डरा है
उसने सोचा था भंडार भरा है
हर विधि से दौलत थी कमाई
लगा हर सावन हरा भरा है
एक ही दिन मे देखो भैया
उसको कैसी दे गया चोट
जब से बदल गया है नोट..

नेता को है रोते पाया
एक दम सब कुछ खोते पाया
रातो को बैठ कर जाग रहा है
कल तक था दिन मे सोते पाया
क्या बाँटेगा अब चुनाव मे
आए कैसे जनता का वोट
जब से बदल गया है नोट...

एक ग़रीब पगार था लाया
मालिक ने हज़ार का नोट थमाया
नोट बड़ा है सोचा था उसने
कई दिनो तक तकिये मे छिपाया
आज गया बाजार मे लेकर
ना राशन मिला ना लंगोट
जब से बदल गया है नोट...