Sunday 28 May 2017

पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

काम और उम्र के बोझ से झुकने लगा हूँ मैं
अनायास ही चलते-चलते अब रुकने लगा हूँ मैं
कितनी भी करू कोशिश खुद को छिपाने की
सच ही तो है, पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं || 

Sunday 7 May 2017

अच्छा लगता है

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कभी-कभी खुद से बातें करना अच्छा लगता है
चलते चलते फिर योहीं ठहरना अच्छा लगता है ||

जानता हूँ अब खिड़की पर तुम दिखोगी नहीं
फिर भी तेरी गली से गुजरना अच्छा लगता है ||

शाख पर रहेगा तो कुछ दिन खिलेगा तू गुल
तेरा टूटकर खुशबू में बिखरना अच्छा लगता है ||

आईने तेरी जद से गुजरे हुए जमाना हुआ
आजकल नज़रों में सँवरना अच्छा लगता है ||

जानता हूँ चाँद का घर है फलक के पास पर
चांदनी का जमीं पर उतरना अच्छा लगता है ||