Wednesday 11 May 2016

अनजान लगता है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अब इन राहो पर सफ़र आसान लगता है
जो गुमनाम है कही वही पहचान लगता है||

जिस शहर मे तुम्हारे साथ उम्रे गुज़ारी थी
कुछ दिन से मुझको ये अनजान लगता है||

कपड़ो से दूर से उसकी अमीरी झलकती है
मगर चेहरे से वो भी बड़ा परेशान लगता है||

मुझको देख कर भी तू अनदेखा मत कर
तेरा मुस्करा देना भी अब एहसान लगता है||

मिलते है घर मे हम सब होली दीवाली पर
सगा भाई भी मुझको अब मेहमान लगता है||

जिंदा थी तो कभी माँ का हाल ना पूछा
तस्वीर मे अब चेहरा उसे भगवान लगता है||

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