Wednesday 20 April 2016

कैसा होगा सफ़र

आफिस का अंतिम दिन था, छोड़ना था शहर
बस यही सोचता हूँ, कि कैसा होगा सफ़र...

उम्मीदे थी बहुत सारी, निकलना था दूर
सुबह से ही जाने क्यो, छाया था सुरूर
बैठे-२ हो गयी देखो सुबह से सहर
            कैसा होगा सफ़र......

शाम कल की थी, तब से थे तैयार
साथ सब ले लिया, जिस पर था अधिकार
चल दिए अकेले ही पर नयी थी डगर
            कैसा होगा सफ़र......

सब कुछ लिया, या कुछ छोड़ दिया
चला राह वापसी, खुद को जोड़ दिया
डरता हूँ पर मै, कुछ रह ना जाए अधर
           कैसा होगा सफ़र......

कभी आया इधर मैं, कभी गया उधर
कितनी राहे चला, फिर भी मंज़िल किधर
खो ना जाऊ यहाँ, मुझको लगता है डर
          कैसा होगा सफ़र......

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