Friday 21 April 2017

भारत दिखलाने आया हूँ

रंग रूप कई वेष यहाँ पर
रहते है कई देश यहाँ पर
कोई तिलक लगाकर चलता
कोई टोपी सजा के चलता
कोई हाथ मिलाने वाला
कोई गले लगाकर मिलता
कितने तौर-तरीके, सबसे मिलवाने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार? भारत दिखलाने आया हूँ


एक कहे मंदिर में रब है
दूजा कहे खुदा में सब है
तीजा कहे चलो गुरुद्वारा
चौथा कहे कहाँ और कब है
मैं कहता माँ बाप की सेवा
दुनिया में सबसे बड़ा मजहब है ||
हर बेटे को कर्त्तव्य, याद दिलवाने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार? भारत दिखलाने आया हूँ |

कोई मांगे मंदिर के अंदर
कोई मांगे मंदिर के बाहर
कोई कहे मदीना घर में
कोई पाक बने मक्का जाकर
किसी के घर से खाना फिकता
कोई खाता घर घर से लाकर
हर कोई मांग रहा यहाँ, अनुबोध कराने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार?, तुम्हे भारत दिखलाने आया हूँ  || 

Monday 17 April 2017

मगर ये हो न सका

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मैंने एक ख्वाब देखा था, तुम्हारी आँखों में
हक़ीक़त बन जाये मगर ये हो न सका ||

एक कश्ती ले उतरेंगे समुन्दर की बाहों में
कोई मोड़ न होगा फिर अपनी राहों में
नीला आसमां होगा जिसकी छत बनाएंगे
सराय एक ही होगी ठहर जायेंगे निगाहों में
एक लहर उठाएँगी एक लहर गिराएगी
गिरेंगे उठेंगे मगर एक दूजे की बाँहों में ||
मगर ये हो न सका...

चलना साथ मेरे तुम घने जंगल को जायेंगे
किसी झरने किनारे कुछ पल ठहर जायेंगे
फूल, खुशबू, परिंदे और हवाओ का शोर
मगर एक दूजे की साँसे हम सुन पाएंगे
अम्बर ढका होगा जब पेड़ों की टहनियों से
कुछ रूहानी कहानियां आपस में सुनाएंगे ||
मगर ये हो न सका...

चलते साथ रेगिस्तान की उस अंतहीन डगर
आदि से अंत तक तुम्हारा हाथ थामे सफर
रेत की तरह न सूखने देंगे होठो को हम
निशा का घोर तम हो या कि फिर हो सहर
अनिश्चितताओं में निश्चिंत हो गुजरेगी रात
हम ही रहनुमां और हम ही हमसफ़र
मगर ये हो न सका......

होता भी कैसे मुकम्मल? एक ख्वाब था 
जमीं पर खड़े होकर माँगा माहताब था 
जलना था मुझे कि जब तक अँधेरा है 
पर कब तक जलता? एक चिराग था 
फिर भी अगर मिल जाते हम कहीं 
बराबर  कर देते बाकी जो हिसाब था 
मगर ये हो न सका .....