Tuesday 28 June 2016

मेरी जिंदगी मे चले आए है

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

हर किसी को आज है, इंतेजार महफ़िल मे मेरा
फिर भी लगता है कि , बस हम ही बिन बुलाए है||

मोहब्बत अगर गुनाह, फिर हम दोनो थे ज़िम्मेदार
महफिले चाँदनी तुम, हम सरे बज्म सर झुकाए है||

खामोशी उनकी कहती है, कुछ टूटा है अन्दर तक
लगता है जैसे मेरी तरह, वो जमाने के सताए है ||

वैसे क्या कम सितम, जमाने ने मुझ पर ढहाए है
जो वो फिर से आज, मेरी जिंदगी मे चले आए है||

Monday 27 June 2016

रोटी को मोहताज

कल सुबह से घर पर बैठे-२ थक चुका था और मन भी खिन्न हो चुका था शुक्रवार और रविवार का अवकाश जो था, तो सोचा कि क्यो ना कही घूम के आया जाए| बस यही सोचकर शाम को अपने मित्र के साथ मे पुणे शहर की विख्यात F. C. रोड चला गया, सोचा क़ि अगर थोड़ा घूम लिया जाएगा तो मन ताज़ा हो जाएगा, थकान दूर हो जाएगी||

         शाम के करीब ७ बजे थे, बहुत ही व्यस्त जीवनशेली के बीच लोग व्यस्तता के मध्य से समय निकाल शहर की सबसे व्यस्त सड़को पर घूमने आते है,कोई महँगी-२ कार चलाकर आया है तो कोई साथ मे ड्राइवर लाया है| पर यहाँ का नज़ारा भी अपने आप मे बहुत विचित्र होता है, सड़क के दोनो किनारे पगडंदियो पर लोगो का सैलाब और हज़ारो नज़रे कुछ ढूंडती हुई, लगे कि जैसे सबको किसी ना किसी चीज़ की ना जाने कब से तलाश है|

        कुछ ही समय मे मै भी उस भीड़ का हिस्सा बन कर कही खो गया, बस चला जा रहा था एक ही दिशा मे| सड़क के दोनो किनारे दुकानो की कतारे जैसे कि अपने गाँव मे मेले मे होती थी और इन दुकानो पर लोगो का हुजूम लगे की मानो मंदिर मे प्रसाद बॅट रहा है| कुछ दुकाने कपड़ो की खरीदारी के लिए, तो कुछ खाने के शौकीन लोगो के लिए पूरी तरह से समर्पित लग रही थी| थोड़ी देर मै भी इसी भीड़ मे खोया रहा, अपने मित्र के कहने पर एक पोशाक भी खरीद ली और वापस लौटने का निर्णय किया||

        वापस लौटने के लिए मैने जैसे ही बाइक पार्किंग एरिया से बाहर निकली, एक व्यक्ति जो की साइकल पर था पास आकर बोला- "सर, आप एक गुब्बारा खरीद लीजिए मेरी बेटी भूखी है सुबह से कुछ नही खाया है हम दोनो ने, मै भूखा सो सकता हूँ पर बच्चा नही सो पाएगा" | एक पुरानी सी साइकल जिस पर कुछ गुब्बारे लगे थे, साथ मे ही एक गंदा सा थैला लटका था जिसमे शायद कुछ रखा था, साइकल के आंगे फ्रेम पर एक छोटी सी(शायद २ या ३ साल की) लड़की बैठी थी जिसको देख कर लगा की ना जाने कब से भूखी है, मुझे लगा क़ि
ये अचानक मै कहाँ आ गया हूँ ? क्या अभी भी लोग २ वक़्त की रोटी को मोहताज है? क्या लोग अपने आसपास की वास्तविकता को देखना नही चाहते? क्या हम सब अपने आप तक सीमित हो चुके है? कहाँ है रोज़गार गारंटी क़ानून ? ऐसे ही ना जाने कितने सवालो को अपने मन मे लिए, उस साइकल वाले व्यक्ति के हाथ मे कुछ पैसे थमा कर वापस चला घर आया||

Sunday 19 June 2016

तब तक समझो मे जिंदा हूँ

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

जब तक आँखो मे आँसू है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

धरती का सीना चीर यहाँ
निकाल रहे है सामानो को
मंदिर को ढाल बना अपनी
छिपा रहे है खजानो को|
इमारतें बना के उँची
छू बैठे है आकाश को
उड़ रहे हवा के वेग साथ
जो ठहरा देता सांस को|
जब तक भूख ग़रीबी चोराहो पर
तब तक मै शर्मिंदा हूँ||

जब तक आँखो मे आँसू  है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

जनता का जनता पर शासन
जनता से है छीन लिया
जनता को जनता से डराए
जनता ने जब उसे चुन लिया|
घोर अंधेरा गलियो मे
चोराहो पर सन्नाटा है
निर्दोष गवां दे जान यहाँ
आरोपी समझे वो टाटा है|
संसद के सिंघासन बैठा
धृतराष्ट्र कहे मै अंधा हूँ||

जब तक आँखो मे आँसू है
तब तक समझो मे जिंदा हूँ||

Friday 17 June 2016

मुझे मेरी सोच ने मारा

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

शिकायत है मुझे दिन से
जो की हर रोज आता है
अंधेरे मे जो था खोया
उसको भी उठाता है
किसी का चूल्हा जलता हो
मेरी चमड़ी जलाता है |
कोई तप कर भी सोया है,
कोई सोकर थका हारा ||

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

मै जन्मो का प्यासा हूँ
नही पर प्यास पानी की
ना रह जाए अधूरी कसर
कोई बहकी जवानी की
उतना बदनाम हो जाऊं
वो नायिका कहानी की|
सागर मे नहाता हूँ
मुझे गंगाजल लगे खारा ||

नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||

Friday 10 June 2016

सहारा ना था

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

वक़्त को क्यो फक़्त इतना गवारा ना था
जिसको भी अपना समझा, हमारा ना था||

सोचा की तुम्हे देखकर आज ठहर जाए
ना चाह कर भी भटका पर, आवारा ना था||

धार ने बहा कर हमे परदेश लाके छोड़ा
जिसे मंज़िल कह सके ऐसा, किनारा ना था||

दुआए देती थी झोली भरने की जो बुढ़िया
खुद उसकी झोली मे कोई, सितारा ना था ||

सारी जिंदगी सहारा देकर लोगो को उठाया
उसका भी बुढ़ापे मे कोई, सहारा ना था ||

Monday 6 June 2016

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी


कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी
पर कैसे कह दूं हमारी थी एक जिंदगी ||

जमाने से जहाँ मेने कई जंग जीत ली
वही मोहब्बत से हारी थी एक जिंदगी ||

मुझको ना मिली वो मेरा कभी ना थी
तुमने जो ठुकराई तुम्हारी थी जिंदगी ||

महल ऊँचा पर आंशु किसी के फर्स पर
तब मुझको ना गवारी थी एक जिंदगी ||

कलम की उम्र मे पत्थर उठा रही है
कितनी किस्मत बेचारी थी एक जिंदगी||

तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी..