Sunday 16 August 2015

जैविक खेती

सूख रहा धरती का कण -2
       हरियाली मिटती जाती है,
शस्य श्यामला वसुंधरा की
       सुंदरता घटती जाती है||

गगन पवन मई जहर घुल रहा
      भूमि बन रही ऊसर बंजर,
रही धरोहर जो हम सबकी
      वही संपाति हो रही जर्जर||

प्राकृतिक संपदा उजड़ रही
       टूट रहा माटी से नाता,
धन की चाहत में मनुज का
       प्रेम धरती से घटता जाता||

धधकती है छाती धरती की
       वर्षा ने मुख मोड़ लिया,
हरियाली छाने के इंतेजार से
       पक्षियो ने नाता तोड़ लिया||

जैविक खेती अपनाने से
      जीवन सुखमय हो जाएगा
सम्मान भी वापस लौटेगा
       अमृतरस फिर भर जाएगा||

तुम बिन रह नही सकता

ये कहना ग़लत था मेरा,
       क़ि तुम बिन रह नही सकता||

एक अटूट भरोसा था
      पर अब वैसा व्यवहार नही|
बंधन टूट चुका है
      शायद दोनो में प्यार नही||
मेरे इल्ज़ामो की फेहरिस्त तो
     बड़ी लंबी है मगर सुन ले
तुझे बेवफा कह दे कोई
     ये मैं सह नही सकता||

ये कहना ग़लत था मेरा...

हर रोज तस्वीर से तुम्हारी
     तुम्हे महसूस करता हूँ|
तुम जा चुकी हो फिर भी
     तुम्हे खोने से डरता हूँ||
इंतजार तो आज भी है क़ि
     तुम लौट आओ कैसे भी
फिर भी अब खुद से
     ये मैं कह नही सकता ||

ये कहना ग़लत था मेरा...

कुछ अपने हसीन लम्हो को
      कागज पर सज़ा दिया|
तुम्हारी यादो को समेटा
      एक नगमा बना दिया||
हर दिन टूट जाता है कुछ मुझमे
      तुम्हे समेटने की चाहत में
फिर भी मुस्कराता हूँ मैं
      ये आंशू बह नही सकता||

ये कहना ग़लत था मेरा...