Saturday 9 December 2017

खुद को तोड़ ताड़ के

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कब तक चलेगा काम खुद को जोड़ जाड के
हर रात रख देता हूँ मैं, खुद को तोड़ ताड़ के ||

तन्हाइयों में भी वो मुझे तन्हा नहीं होने देता 
जाऊं भी तो कहाँ मैं खुद को छोड़ छाड़ के ||

हर बार जादू उस ख़त का बढ़ता जाता है
जिसको रखा है हिफ़ाजत से मोड़ माड़ के ||

वैसे  ये भी कुछ नुक़सान का सौदा तो नहीं
सँवार ले खुद को वो अगर मुझको बिगाड़ के ||

खुशबू न हो मगर किसी को ज़ख्म तो न दे
तुलसी लगा लूँ आँगन में गुलाब उखाड़ के || 

Thursday 2 November 2017

कुछ फायदा नहीं

मैं सोचता हूँ, खुद को समझाऊँ बैठ कर एकदिन
मगर, कुछ फायदा नहीं ||

तुम क्या हो, हकीकत हो या ख़्वाब हो
किसी दिन फुर्सत से सोचेंगे, अभी कुछ फायदा नहीं ||

कभी छिपते है कभी निकल आते है, कितने मासूम है ये मेरे आँशु
मैंने कभी पूछा नहीं किसके लिए गिर रहे हो तुम
क्योकि कुछ फायदा नहीं

तुम पूछती मुझसे तो मैं बहुत कुछ कहता
मगर वो सब तुम्हे सुनना ही कहाँ था जो मुझे कहना था
मगर रहने दे, कुछ फायदा नहीं

फिर से वही दर्द वही आहे, लाख रोके खुद को फिर भी वही जाए
बेहतर होता कि कभी मिलते ही नहीं
मगर अब जब मिले है तो ये दर्द सहने दे
कुछ फायदा नहीं

वो कहती है में उसके काबिल नहीं हूँ
बहुत है अभी जिन्हे मै हासिल नहीं हूँ
कुछ भी हो हक़ीक़त मगर पागल नहीं हूँ
मगर कुछ फायदा नहीं

किसी दिन फुर्सत से सोचेंगे , अभी कुछ फायदा नहीं ||

Wednesday 11 October 2017

तुम्हे पढ़ना नहीं आया

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय


जिंदगी की क़िताब कुछ बिखरने सी लगी है
बेचने की ख़ातिर इसे  मुझे मढ़ना नहीं आया ||

लोग कहते है कि मुझे पत्थर गढ़ना नहीं आया
तुम्हे क्या ख़ाक लिखता तुम्हे पढ़ना नहीं आया ||

खुद से ही लड़ता रहा खुद की ही ख़ातिर में 
तुम्हारे लिए ज़माने से मुझे लड़ना नहीं आया ||

मेरे साथ और लोग थे सब आगे निकल गए
मै अब तक वही हूँ   मुझे बढ़ना नहीं आया || 

Sunday 8 October 2017

कोई मजहब नहीं होता

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

तुम्हारे वास्ते मैंने भी बनाया था एक मंदिर
जो तुम आती तो कोई गज़ब नहीं होता ||

मन्दिर मस्ज़िद गुरद्वारे हर जगह झलकते है
बेचारे आंशुओं का कोई मजहब नहीं होता ||

तुम्हारे शहर का मिज़ाज़ कितना अज़ीज़ था
हम दोनों बहकते कुछ अजब नहीं होता ||

जिनके ज़िक्र में कभी गुजर जाते थे मौसम
उनका चर्चा भी अब हर शब नहीं होता ||

जब से समझा क्या है, अमीरी की क़ीमत
ख़ुशनसीब है वो पागल जो अब नहीं रोता ||  

Friday 6 October 2017

कब नीर बहेगा आँखों में

सागर कब सीमित होगा
फिर से वो जीवित होगा
आग जलेगी जब उसके अंदर
प्रकाश फिर अपरिमित होगा ||
सूरज से आँख मिलाएगा
कब तक झूमेगा रातों में ?
कब नीर बहेगा आँखों में ?

छिपा कहाँ आक्रोश रहेगा
देखो कब तक खामोश रहेगा
ज्वार किसी दिन उमड़ेगा
 सीमाएं सारी तोड़ेगा
वो सच तुमको बतलायेगा
बातों से आग लगायेगा
एक धनुष बनेगा बातों का
बातों के तीर चलायेगा
कोई समझकर पुल गुजरेगा
कोई फसा रहेगा बातों में
कब नीर बहेगा आँखों में ?

Thursday 28 September 2017

कभी सोचता हूँ कि

कभी सोचता हूँ  कि
जिंदगी की हर साँस जिसके नाम लिख दूँ
वो नाम इतना गुमनाम सा क्यों है ?

कभी सोचता हूँ  कि
हर दर्द हर शिकन में, हर ख़ुशी हर जलन में
हर वादे-ए-जिंदगी में, हर हिज्र-ए -वहन में
जोड़ दूँ जिसका नाम, इतना गुमनाम सा क्यों है ?

कभी सोचता हूँ  कि
सुबह है, खुली है अभी शायद आँखें मेरी
लगता है पर अभी से शाम क्यों है
फिर सोचता हूँ वजह, तेरा चेहरा नजर आता है
चेहरा है, पर नाम गुमनाम सा क्यों है?

कभी सोचता हूँ  कि
लोग करते है फ़रिश्तो से मिलने की फ़रियाद
तेरे तसवुर में हमें रहता नहीं कुछ भी याद
वो हाल जिसे  छिपाने की कश्मकश में हूँ 
मेरी निगाहों में सरेआम सा क्यों है ?

कभी सोचता हूँ कि.... 

Thursday 14 September 2017

जिस रात उस गली में

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

रौशनी में खो गयी कुछ बात जिस गली में
वो चाँद ढूढ़ने गया जिस रात उस गली में ||

आज झगड़ रहे है आपस में कुछ लुटेरे
कुछ जोगी गुजरे थे एक साथ उस गली में ||

कुछ चिरागो ने जहाँ अपनी रौशनी खो दी
क्यों ढूढ़ता है पागल कयनात उस गली में ||

मौसम बदलते होंगे तुम्हारे शहर में लेकिन
रहती है आँशुओं की बरसात उस गली में ||

सूरज को भी ग्रहण लगता है हर एक साल
बदलेंगे एक दिन जरूर हालत उस गली में ||  

Wednesday 6 September 2017

फूलो के इम्तिहान का

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मंदिर में काटों ने अपनी जगह बना ली
वक़्त आ गया है फूलो के इम्तिहान का  ||

सावन में भीगना कहाँ जुल्फों से खेलना
बारिश में जलता घर किसी किसान का ||

हालात बदलने की कल बात करता था
लापता है पता आज उसके मकान का ||

निगाह उठी आज तो महसूस करता हूँ
लाल सा दिखने लगा रंग आसमान का ||

लुटेरों की हुक़ूमत जहाजों पर हो गयी
अंदाजा किसे है दरिया के नुकसान का ||

आइना कहाँ दुनियाँ की नजर में  "शिव"
अपने ही सबूत मांगते तेरी पहचान का ||

तबीयत बदल जाए

तबीयत से देख ले तुम्हे तो तबीयत बदल जाए, 
मेरा ईमान बदला है उनकी शरीयत बदल जाए || 
कवि: #शिवदत्त श्रोत्रिय

Wednesday 30 August 2017

कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को


कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

जितना भी कुछ भुलाने का
दिन में प्रयास किया जाता है
अनायास ही सब एक-एक कर
मेरे सम्मुख चला आता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....

असंख्य तारे जब साथ होते है
उस आसमान की छत पर
मैं खुद को ढूढ़ने लगता हूँ तब
किसी कागज़ के ख़त पर
धीरे धीरे यादों का एक फिर
घेरा सा बनता है
कोई किरदार जी उठता
कोई किरदार मरता है
मुकम्मल नहीं होता है यादों का बसेरा
रेत सा  बिखरता है
कुछ समेटकर उससे सम्हल जाता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....

सन्नाटे में जब तुम्हे सुनने की
आस जगती है
तुम्हारे लम्स को सोचूँ तो फिर
प्यास लगती है
कभी असीमित आकाश में वो
थक चुका पंछी
नहीं धरती कही उसको अब
पास दिखती है
एक आँख झूमती मस्ती में दूजी
उदास लगती है ||
जब एक आँख से हिमखंड
पिघल जाता है ||
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को.... 

Sunday 20 August 2017

बहुत बेशर्म है या ज़िद्दी

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

वो लड़का जो कभी किताबों से मोहब्बत करता था
सुना है, आजकल मोहब्बत में किताबें लिख रहा हैं

पहले रास्ते की किसी सड़क के किसी मोड़ पर
या शहर के पुराने बाज़ार की किसी दुकान के काँच की दीवारों में कैद
किसी किताब को दिल दे बैठता था ||

आजकल वो अपना दिल हथेली पर रख कर घूमता है
उसी सड़क के मोड़ पर किसी दूकान या शॉपिंग मॉल के
एस्केलेटर से उतरती हुई लड़की को दिल देना चाहता है ||

किताबो के कवर की तरह ही वो चहरे पढ़ना चाहता है
और शायद वही गलती जानबूझकर दोहराना चाहता है
जो कि किताबों के कवर देखकर किताब उठाकर उसके अंदर की
कहानियो में फस कर करता था |
अब सड़क किनारें किताबों की दुकानों के प्रति उसका मोह
भंग हो चूका है
उसकी सोच का स्तर अब गिर चुका है या फिर किताबो का,
जब से उसने सड़क के फुटपाथ पर किताबो को बिकते हुए देखा है
जहाँ से वो कभी जूते खरीदा करता था ||

वो आज भी पढ़ना चाहता है, मगर केवल चहरे ...
पर शायद उसने ये हुनर सीखा नहीं है, वो पागल अभी भी
हर सीने में दिल ढ़ूढ़ने निकल पड़ता है ||
हर बार उसे पत्थर मिले है सीने में , पर पागल
ठोकरों से सम्हलता कहाँ है ?
लगता है बहुत बेशर्म है या ज़िद्दी।|

Sunday 23 July 2017

एक प्लेटफार्म है

शहर की भीड़ भाड़ से निकल कर
सुनसान गलियों से गुजर कर
एक चमकता सा भवन
जहाँ से गुजरते है, अनगिनत शहर |

एक प्लेटफार्म है, जो हमेशा ही
चलता रहता है
फिर भी
वहीं है कितने वर्षो से |

न जाने कितनो  की मंजिल है ये
और कितने ही पहुंचे है
यहाँ से अपनी मंजिल
पर हर कोई  बे-खबर है |

कुछ लोग दिन गुजारते है कहीं
फिर शाम को लौट कर
बिछाते है प्लेटफार्म पर एक चादर
ये बन  जाता है, सराय |

रात के अँधेरे में चमचमाता
कई शहर  इंतजार में
उसी इंतजार में शामिल
आज मेरा भी नाम  || 

Monday 17 July 2017

पर कौन सुनेगा उसकी ?

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

शाम को आने में थोड़ी देरी
हो गयी उसको
घर का माहौल बदल चुका
था एकदम
वो सहमी हुई सी डरी डरी
आती है आँगन में
हर चेहरे पर देखती है
कई सवाल

सुबह का खुशनुमा माहौल
धधक रहा था अब
उसके लिए बर्फ से कोमल हृदय में
दावानल सा लग रहा था
वो खामोश रह कर सुनती है बहुत कुछ
और रोक लेती है नीर को
आँखो की दहलीज पर

पहुचती है अपने कमरे में
जहाँ वो रो सकती है
यहाँ उसे डर नही लगता है
रोने में
जहाँ की दीवारो पर नमी
हमेशा बरकरार ही रहती है
उसकी सबसे अज़ीज दुनियाँ
उस कमरे में ही है अब तक

कभी वो वहाँ एक स्वपन देखती
है, जिसमे चुन लेती है अपना राजकुमार
कभी खुशी में नाचने लगती है
अनायस्स ही कुछ सोचकर
कभी कभी तो आंशू भी गिर जाते है
हस्ते हस्ते उसकी आँखो से

समुद्र की लहरो की तरह
विचार आते है उसके मन में  भी
वो एक डोर से बधी है
जिसका छोर बहुत से हाथों में है
वो उड़ना चाहती है पतंग की
तरह
पर अपने ही आसमान में जहाँ
बाज और गिद्धों का ख़तरा ना हो

वो बुनती है उड़ानो के बटन
ख़यालो की कमीज़ में
कभी वो ओढ़ लेती है दुपट्टा पुराना
जिस पर कभी सितारे हुआ करते थे
वो रेडियो जॉकी बनना चाहती है
पर घर में  गुमसुम  ही रहती है ||

वो बहुत कुछ कहना चाहती है
पर कौन सुनेगा उसकी ?

Saturday 15 July 2017

कैसे जान पाओगे मुझको

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

अगर तुमने प्रेम नही किया
तो कैसे जान पाओगे मुझको

किसी को जी भरकर नही चाहा
किसी के लिए नही बहाया
आँखों से नीर  रात भर
किसी के लिए अपना तकिया नही
भिगोया कभी
नही रही सीलन तुम्हारे कमरे
मे अगर कभी
तो कैसे जान पाओगे मुझको ||

हृदय के अंतः पटल से
अगर नही उठी कभी तरंगे
नही बिताई रात अगर
चाँद और तारो के साथ
नही सुनी कभी नज़्म
साहिर, फ़ैज़ ग़ालिब, मीर , मज़ाज़ की
तो फिर तुम ही बताओ
कैसे जान पाओगे मुझको ||

अगर तुम तड़पते  नही की जैसे
चातक तरसता है बारिश के लिए
या मछली पानी से बाहर आकर,
तुम एक समुंदर के बीच पानी चारो ओर
पर उसमे से पी नही सकते
दो घूट भी तुम, महसूस  नही  किया है
भीड़ मे भी अगर तन्हा नही होते
नही करते अगर बातें  खुद से
तो कैसे जान पाओगे मुझको ||

Friday 7 July 2017

दूसरो की तलाश में

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

जब भी भटकता हूँ किसी की तलाश में
थक कर पहुच जाता हूँ तुम्हारे पास में
तुम भी भटकती हो किसी की तलाश में
ठहर जाती हो आकर के मेरे पास में
हर दिन भटकते रहे चाहे इस दुनियाँ में
मिलते रहे आपस में दूसरो की तलाश में || 

Wednesday 5 July 2017

कोई सहारा तो हो

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मिले नज़र फिर झुके नज़र, कोई इशारा तो हो
यो ही सही जीने का मगर, कोई सहारा तो हो ||

स्कूल दफ़्तर परिवार सबको हिस्सा दे दिया
जिसको अपना कह सके, कोई हमारा तो हो || 

उलझ गये है भँवर मे और उलझे ही जा रहे 
कोई राह नयी निकले, कोई किनारा तो हो || 

टूटे हुए सितारो से माँगते है सब फरियादें 
कुछ हम भी मांग ले, कोई सितारा तो हो ||

तुम्हे देख हर कोई नज़रिया बदल लेता है 
हम भी बदल .जाए, कोई नज़ारा तो हो || 

Sunday 2 July 2017

दंगा

रेखा की इज़्ज़त लूटे और हमीर का घर जले
दंगा फिर हो कि, अख़बारो का कारोबार चले || 
#शिवदत्त श्रोत्रिय

Sunday 28 May 2017

पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

काम और उम्र के बोझ से झुकने लगा हूँ मैं
अनायास ही चलते-चलते अब रुकने लगा हूँ मैं
कितनी भी करू कोशिश खुद को छिपाने की
सच ही तो है, पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं || 

Sunday 7 May 2017

अच्छा लगता है

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कभी-कभी खुद से बातें करना अच्छा लगता है
चलते चलते फिर योहीं ठहरना अच्छा लगता है ||

जानता हूँ अब खिड़की पर तुम दिखोगी नहीं
फिर भी तेरी गली से गुजरना अच्छा लगता है ||

शाख पर रहेगा तो कुछ दिन खिलेगा तू गुल
तेरा टूटकर खुशबू में बिखरना अच्छा लगता है ||

आईने तेरी जद से गुजरे हुए जमाना हुआ
आजकल नज़रों में सँवरना अच्छा लगता है ||

जानता हूँ चाँद का घर है फलक के पास पर
चांदनी का जमीं पर उतरना अच्छा लगता है || 

Friday 21 April 2017

भारत दिखलाने आया हूँ

रंग रूप कई वेष यहाँ पर
रहते है कई देश यहाँ पर
कोई तिलक लगाकर चलता
कोई टोपी सजा के चलता
कोई हाथ मिलाने वाला
कोई गले लगाकर मिलता
कितने तौर-तरीके, सबसे मिलवाने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार? भारत दिखलाने आया हूँ


एक कहे मंदिर में रब है
दूजा कहे खुदा में सब है
तीजा कहे चलो गुरुद्वारा
चौथा कहे कहाँ और कब है
मैं कहता माँ बाप की सेवा
दुनिया में सबसे बड़ा मजहब है ||
हर बेटे को कर्त्तव्य, याद दिलवाने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार? भारत दिखलाने आया हूँ |

कोई मांगे मंदिर के अंदर
कोई मांगे मंदिर के बाहर
कोई कहे मदीना घर में
कोई पाक बने मक्का जाकर
किसी के घर से खाना फिकता
कोई खाता घर घर से लाकर
हर कोई मांग रहा यहाँ, अनुबोध कराने आया हूँ
क्या तुम हो तैयार?, तुम्हे भारत दिखलाने आया हूँ  || 

Monday 17 April 2017

मगर ये हो न सका

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मैंने एक ख्वाब देखा था, तुम्हारी आँखों में
हक़ीक़त बन जाये मगर ये हो न सका ||

एक कश्ती ले उतरेंगे समुन्दर की बाहों में
कोई मोड़ न होगा फिर अपनी राहों में
नीला आसमां होगा जिसकी छत बनाएंगे
सराय एक ही होगी ठहर जायेंगे निगाहों में
एक लहर उठाएँगी एक लहर गिराएगी
गिरेंगे उठेंगे मगर एक दूजे की बाँहों में ||
मगर ये हो न सका...

चलना साथ मेरे तुम घने जंगल को जायेंगे
किसी झरने किनारे कुछ पल ठहर जायेंगे
फूल, खुशबू, परिंदे और हवाओ का शोर
मगर एक दूजे की साँसे हम सुन पाएंगे
अम्बर ढका होगा जब पेड़ों की टहनियों से
कुछ रूहानी कहानियां आपस में सुनाएंगे ||
मगर ये हो न सका...

चलते साथ रेगिस्तान की उस अंतहीन डगर
आदि से अंत तक तुम्हारा हाथ थामे सफर
रेत की तरह न सूखने देंगे होठो को हम
निशा का घोर तम हो या कि फिर हो सहर
अनिश्चितताओं में निश्चिंत हो गुजरेगी रात
हम ही रहनुमां और हम ही हमसफ़र
मगर ये हो न सका......

होता भी कैसे मुकम्मल? एक ख्वाब था 
जमीं पर खड़े होकर माँगा माहताब था 
जलना था मुझे कि जब तक अँधेरा है 
पर कब तक जलता? एक चिराग था 
फिर भी अगर मिल जाते हम कहीं 
बराबर  कर देते बाकी जो हिसाब था 
मगर ये हो न सका ..... 

Friday 24 March 2017

करो वंदना स्वीकार प्रभो

वासना से मुक्त हो मन,
    हो भक्ति का संचार प्रभो
जग दलदल के बंधन टूटे
    हो भक्तिमय संसार प्रभो ॥

वाणासुर को त्रिभुवन सौपा
    चरणों में किया नमस्कार प्रभो
भक्तो पर निज दृष्टि रखना
   करुणा बरसे करतार प्रभो ॥


कण-२ में विद्धमान हो नाथ
   तुम निराकार साकार प्रभो
दानी हो सब कुछ दे देते
    दे दो भक्ति अपार प्रभो ॥

अनसुना बचा नहीं कुछ तुमसे
  सुन लेना पापी की पुकार प्रभो
कुछ अच्छा मैंने किया नहीं
  दयनीय पर करो विचार प्रभो ॥

हो नाम तुम्हारा अंतः मन में
कर दो दूर विकार प्रभो
विनती मेरी शरण में ले लो
करो वंदना स्वीकार प्रभो ॥ 

Wednesday 15 March 2017

अंतिम यात्रा

  अंतिम यात्रा, भाग -१

किसी की चूड़ियाँ टूटेंगी,
कुछ की उम्मीदे मुझसे
विदा लेगी रूह जब
मुस्करा कर मुझसे
कितनी बार बुलाने भी जो
रिश्ते नहीं आये
दौड़ते चले आएंगे वो तब
आँशु बहाये
कितने आँशु गिरेंगे तब
जिस्म पर मेरे
रुख्सती में सब खड़े होंगे
मेरी मिटटी को घेरे ||

अंतिम बार फिर नहलाया जायेगा
बाद सजाया जायेगा
अंतिम दर्शन है जल्दी आओ
कुछ को बुलाया जायेगा
अंतिम यात्रा होगी पर
मेरे कदम न हिलेंगे
कांधों पर लेकर कब तलक
सब दूर चलेंगे
समुन्दर कि जिसका कोई छोर नहीं
आँशु है सबके जल्दी रुकेंगें
शमशान तक सब जोश से आएँगे
घर पहुचने पर थकेंगे ||

जब अंतिम बार जला होगा
शरीर, मरघटी में
मेरी राख बहा दी गयी होगी
पानी की तलहटी में
ब्रह्मभोज खिलाओगे तुम कुछ
ब्रह्मिनो को बुलाकर
मेरी यादो समेट दोगे तस्वीर पर
फूलमाला चढ़ाकर
मेरी लाठी, मेरा चश्मा, मेरी डायरी
छिपा दोगे
मेरी शक्सियत का हर एक निशान
मिटा दोगे ||


क्या कोई मुझे भी याद करेगा?
मेरे बारे में कुछ बात करेगा,
उनकी सदा मुझ तक पहुचे कैसे भी
ऐसी कोई फ़रियाद करेगा ||

Saturday 25 February 2017

आया था चाँद पानी पर

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

किसी ने उपमा दी इसे
महबूबा के चेहरे की,
किसी ने कहा ये रात का साथी है

कभी  बादल मे छिपकर
लुका छिपी करता तो ,
मासूम सा बनकर सामने आ जाता कभी

सदियों से बस वही है पर फिर भी
हर दिन कुछ बदल जाता है
अमावस्या से पूर्णिमा तक जीता है एक जिंदगी

खामोश है, बेजुबान रहा हमेशा
पर गवाही दे रहा है  
प्रेमी और प्रेमिका के मिलन की उस रात की

कौसल्या से बालक राम ने भी
जिद की थी चाँद की
झट फलक से उतर आया था चाँद पानी पर  ||

हर कहीं है जिक्र उसका 
सितारों ने भी घेरा है 
फिर भी लगता है चाँद आसमान में अकेला है ॥ 

Tuesday 21 February 2017

अब आदाब करके

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मेरे गुनाहों को अब नजर अंदाज करके
बनाओ तुम मुझे, खुद को खराब करके ||

किस कदर टूट चुका है अब वो देख
रात गुजारता है, जिस्म को शराब करके ||

अपने हिस्से की चाहत चाहता हर कोई
चैन कहाँ है ,मोहब्बत बे- हिसाब करके ||

उजड़ा हुआ है यहाँ हर साख का मंजर
सोचा चमन से गुजरेगा सब पराग करके ||

ये शहर बड़ी जल्दी इतना बड़ा हो गया
मिलता नहीं गले कोई अब आदाब करके ||

तेरी हर राह में रोशनी तभी आयी है
माँ-बाप ने जलाया खुद को चराग़ करके ||

Wednesday 15 February 2017

सुखद स्वास्थ का एक कण चाहता हूँ



न महलो की, जन्नत की चाहत हो कभी
सुखद स्वास्थ का एक कण चाहता हूँ ॥

हो जीवन सुगम और मिट जायें सब अधम
हर किसी के खातिर ऐसा कल चाहता हूँ

काम, क्रोध, मोह, मद ये जग के शिकारी
इनकी नजरों से बचा एक मन चाहता हूँ ॥

आँखे बंद करके जो बस तुझको निहारे
तुम्हारे दर्शन को मैं ऐसे नयन चाहता  हूँ ॥

जीवन के सफर में तुम, कभी मिलो ना मिलो
अंतिम सफर में हो सम्मुख, वह क्षण चाहता हूँ ॥   ...  शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday 12 January 2017

याद से निकलकर

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

तेरी यादो का तकिया लगा कर, 
हर रात सोता हूँ 
कभी तो ख्वाबो में आओगी तुम,
संभल- संभलकर 
या जब सुबह पहली किरण से 
नींद टूट जाएगी
तुम हकीकत बन जाओगी मेरी
याद से निकलकर ॥

माँ-बाप के पैर छुए हुआ एक जमाना

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

छोड़ा घर सोच कर, किस्मत आजमाना 
पर क्यों ना लौट मैं, कोई करके बहाना 
जन्नत ढूंढता था, जन्नत से दूर होकर 
 माँ-बाप के पैर छुए हुआ एक जमाना ॥

Tuesday 10 January 2017

बेटी है नभ में जब तक

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

बेटी तुम्हारे आँचल में जहां की खुशियां भर देती है
तुम्हारी चार दीवारों को मुकम्मल घर कर देती है ॥

बेटी धरा पर खुदा  की कुदरत  का नायाब नमूना है
बेटी न हो जिस घर में, उस घर का आँगन सूना है ॥

बेटी माँ से ही, धीरे-धीरे माँ होना सीखती जाती है
बेटी माँ को उसके बचपन का आभास कराती है ॥

बेटी ने जुजुत्सा, सहनशीलता, साहस पिता से पाया
दया, स्नेह, विनम्रता, त्याग उसमे माँ से समाया ॥

बेटी, बाप की इज्जत,और माँ की परछाई होती है
फूल बिछड़ने  पर गुलशन से सारी बगिया रोती है ॥

बेटी को जब माँ बाप ने, घर से विदा किया होगा
महसूस करो कि सीने से कलेजा अलग किया  होगा ॥

किसी मुर्ख ने आज फिर बेटी को कोख में मार दिया
अपने हाथो, अपनी नाजुक वंश बेल को काट दिया ॥

बीज नहीं होगा जब बोलो, तुम  कैसे पेड़ लगाओगे
बेटी मार के जिन्दा हो, किस मुह से बहू घर लाओगे ॥

अन्नपूर्णा कहा मुझे पर, भूंख मिटा न पायी अब तक
तुम भी तुम बन कर जिन्दा हो, बेटी है नभ में जब तक ॥


Friday 6 January 2017

अब बाग़बान नही आता

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

हम उस गुलशन के गुल बन गये
जहाँ अब बाग़बान नही आता
कुछ पत्ते हर रोज टूट कर, बिखर जाते है
पर कोई अब समेटने  नही आता ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

कुछ डाली सूख रही  है यहाँ
कुछ पर पत्ते मुरझाने लगे है
हवा ने कुछ को मिटटी में मिला दिया है
कुछ किसी के इन्तेजार में है ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

वक़्त के थपेड़ो से कुछ उधड़ा -२ सा है
हरा-भरा है मगर  उजड़ा-२ सा है
अमरबेल ने आम पर चढाई कर दी है
पर उसे अब रोकने वाला नहीं कोई ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

जिससे मिला था जीवन उससे दूर जाना जरूरी है
हाय, जैसे बेटी को ससुराल जाना जरूरी है
बड़े पेड़ की छाव में नए पौधे सूखने लगे है
किससे कहे की उन्हें अब घर बदलने की जरूरत है?
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

कोई भी अंदर आकर उपद्रव मचाता है
घोसले उजाड़े है, निशाँ मिटाता है
आहत  है गुलिस्ता, बनकर अहाता  राहगीरो को
कभी गुरूर में था, पावन शिवाला है

लगता है बेबस सा कुछ कह  नहीं सकता
बिना बाग़बान के गुलशन रह नहीं सकता ॥







Wednesday 4 January 2017

बढ़ाए रखी है दाढ़ी..

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

चेहरा छिपाने, चेहरे पर लगाए रखी है दाढ़ी
माशूका की याद मे कुछ बढ़ाए रखी है दाढ़ी||

दाढ़ी सफेद करके, कुछ खुद सफेद हो लिए
कितने आसाराम को छिपाए रखी है दाढ़ी ||

दाढ़ी बढ़ा कर कुछ, दुर्जन डकैत कहाने लगे
कुछ को समाज मे साधु बनाए रखी है दाढ़ी ||

चोर की दाढ़ी मे तिनका, अब कहाँ मिलता है
चोरों ने तो यहाँ कब की कटाए रखी है दाढ़ी ||

कद नही है बढ़ता , दाढ़ी बढ़ा कर देख 'शिव'
बचपना चेहरे का खुद मे छिपाए रखी है दाढ़ी ||


Sunday 1 January 2017

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कुछ बीत गया, कोई छूट गया
कुछ नया मिला, कोई रूठ गया
डोर समझ कर जिसे सम्हाला
एक धागा था जो टूट गया||

मान जाए रूठे, जुड़ जाए टूटे
छूटने वालो से हो जब बंधन ..

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||

आक्रोशित है, उद्वेलित है नर
व्याप्त हुआ, क्यो इतना डर?
मन-मंदिर मे अंधकार कर
जला रहा क्यों बाहर के घर?

क्रोध को शांत करे वो अपने
मन उसका फिर हो जब चंदन...

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||

एक फूल, मंदिर के अंदर
एक फूल, समाधि के ऊपर
रंग वही है गंध वही है
वो नही बदलता हो निष्ठुर

गिरगिट का खेल छोड़ कर के
मानव मिटाए सबका जब क्रंदन..

तब होगा नव-वर्ष का अभिनंदन ||