Sunday 27 July 2014

ब्रह्म प्रकाश

सूर्य नही था, चंद्र नही था
दुनिया मे कोई बंद नही था
ना थी रोशनी ना था अंधेरा
ना थी रात और ना ही सवेरा
ना धरती थी ना था आकाश
तब भी था वह  ब्रह्म प्रकाश||

जीव नही थे, जन्तु नही थे
पेड़ नही थे तंतु नही थे
ना था समय, ना थी बेला
ना कोई सूनापन, ना ही मेला
ब्राह्मांड मा जब ना था विकाश
तब भी था वह, ब्रह्म प्रकाश||

असुर नही थे, देव नही थे
राजा नही थे, सेव नही थे
ना थी अज्ञानता, ना था ज्ञान
ना जीवन था, न थे प्राण
ना कुछ खोना, ना पाने की आस
तब भी था वह ब्रह्म प्रकाश||


किताबो की तरह

गम बड़े आते है जिंदगी मे, कातिल की निगाहो की तरह
छुपा लेती हो इन्हे आचल मे, मेरे गुनाहो की तरह||

बिखरा पड़ा हू मै कब से, चारो ओर खुले हाथो सा
समेट लो मुझे अपने दामन मे, बाहो की तरह||

तेरा मेरा तो लेना देना तो बहुत पुराना है
बस याद रख तू मुझे, हिसाबो की तरह||

तेरे बदन की लिखावट मे है उतार और चढ़ाव
कैसे मै पढ़ूँ उन्हे ,  किताबो की तरह ||

भूल से भूल मत जाना मेरी यादो की महफ़िल को
वरना हर रात सताऊंगा, ख्वाबो की तरह ||

अंधेरे मे रह कर रोशनी करना लिखा है किस्मत मे
मै तो बस जलता जाऊंगा, चिरागो की तरह ||

Wednesday 23 July 2014

वंदिनी

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

क्या परिचय दू मैं नारी का खुद परिचय बन जाता है
कभी रूप बन माता का वो मेरे सम्मुख आता है |
कभी रूप बन पत्नी का नज़रो पर वो छाता है
तो कभी रूप बन बेटी का मुझको इंशान बनता है |

तेरा वर्णन करने को जब ये नादान कलम उठाता है
तेरी अभिव्यति करने को मस्तक मेरा झुक जाता है
तेरी क्षमता समझने को ईश्‍वर जब कदम उठाता है
तो ईश्‍वर भी अपने अस्तित्व से अर्धनारीश्वर बन जाता है 
   
आज उसी भारत भूमि मे ऐसा वक़्त भी आता है
जब किसी फूल को खिलने से पहले ही तोड़ा जाता है
हृदयघात ये कैसा एक मा के सीने मे होता होगा
जब किसी बच्ची को इस दुनिया मे आने से रोका होगा|

वही कली जब फूल बनके सारी बगिया महकाती है
पत्नी का वो रूप लेकर जब तेरे दर पर आती है
उसका ऐसा आना भी क्या से क्या कर देता है
इन ईट पत्‍थरो दीवारो को फिर से घर कर देता है|

घर की शोभा ग्रहशोभा को जब, घर मे दुत्कारा जाता है
रोब दिखाने ताक़त का जब, उसको मारा जाता है
सात जन्म का धागा तो उस वक़्त ही खोला जाता है
पति पत्नी का रिश्ता जब पैसो से तोला जाता है|

जब दया ममता स्नेह मातरत्व विनम्रता प्रेम त्याग तपस्या सेवा को विधाता ने एक साथ मिलाया होगा
तो सीप चमकता मोती सा प्रतिबिंब स्त्री का पाया होगा|

जब उसी स्त्री की इज़्ज़त को सरेआंम उछाला जाता है
इसी समाज के बीच एक दुशासन पाला जाता है
जब देख दशा इस देश की सारी जनता सोती है
उस वक़्त भी जाने कहा-2 कितनी दामिनी रोती है|

तेरी इस हालत पर दुख तो, देश को होता होगा
हसे कोई भी, पर तेरा निर्माता भाग्य विधाता आज भी रोता होगा|
तेरा निर्माता भाग्य विधाता आज भी रोता होगा
क्योकि उसकी बनाई दुनिया मे, नारी का ऐसा हाल भी होता होगा|

चेतावनी:-
जान बूझकर क्यो सता रहा तू इस आधी आबादी को|
क्यो अपने हाथो दावत देता तू अपनी बर्बादी को||

Sunday 6 July 2014

सुना है कि तुम जा रही हो

           
            कवि:  शिवदत्त श्रोत्रिय

************ अब कोई नहीं होगा ************

सुना है कि तुम जा रही हो,
अब सामने नजरो के मेरे कोई नहीं होगा
हर दिन जो तुम्हे देखा करता था
पर लगता है वैसा नजारा अब कोई नहीं होगा||

कभी नजर उठा कर देखा करते थे
तो कभी नजर झुका कर छिप जाते थे
अचानक लगता  था कि जैसे
सारे नज़ारे एकदम  रुक जाते थे ||
पर लगता था कि ऐसा खेल अब कोई नहीं होगा......

तुम जब भी मुझको देख कर मुस्करा जाती थी
मुझे तो बस देखना होता था और तुम दिख जाती थी
मुझे खुस रहने का कारण मिल जाता था
एक मुरझाया हुआ सा कमल खिल जाता था ||
पर लगता है ऐसा कारण अब कोई नहीं होगा............

किसी से बिछड़ने पर दर्द होता है
पर कहाँ होता है? क्यों होता है?
कब  होता है? कैसे होता है? समझ नहीं आता
कैसा  ये दर्द है, क्यों नजर नहीं आता ||
पर लगता है अब ऐसा दर्द अब कोई नहीं होगा......

तुम्हे देखा तो लगा कि मेरी तलाश ख़त्म  हो गयी थी
पर न जाने कहाँ से तुम्हारे जाने कि खबर मिली थी
तुम विदाई चाहती थी पर हम तो तुम्हे दिल में बसा चुके थे
पर लगता है इस दिल में अब कोई नहीं होगा ..........