Friday 6 January 2017

अब बाग़बान नही आता

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

हम उस गुलशन के गुल बन गये
जहाँ अब बाग़बान नही आता
कुछ पत्ते हर रोज टूट कर, बिखर जाते है
पर कोई अब समेटने  नही आता ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

कुछ डाली सूख रही  है यहाँ
कुछ पर पत्ते मुरझाने लगे है
हवा ने कुछ को मिटटी में मिला दिया है
कुछ किसी के इन्तेजार में है ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता॥

वक़्त के थपेड़ो से कुछ उधड़ा -२ सा है
हरा-भरा है मगर  उजड़ा-२ सा है
अमरबेल ने आम पर चढाई कर दी है
पर उसे अब रोकने वाला नहीं कोई ॥
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

जिससे मिला था जीवन उससे दूर जाना जरूरी है
हाय, जैसे बेटी को ससुराल जाना जरूरी है
बड़े पेड़ की छाव में नए पौधे सूखने लगे है
किससे कहे की उन्हें अब घर बदलने की जरूरत है?
क्योकि
अब बाग़बान नही आता ॥

कोई भी अंदर आकर उपद्रव मचाता है
घोसले उजाड़े है, निशाँ मिटाता है
आहत  है गुलिस्ता, बनकर अहाता  राहगीरो को
कभी गुरूर में था, पावन शिवाला है

लगता है बेबस सा कुछ कह  नहीं सकता
बिना बाग़बान के गुलशन रह नहीं सकता ॥







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