Tuesday 16 August 2016

क्या सचमुच शहर छोड़ दिया

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

अपने शहर से दूर हूँ,
पर कभी-२ जब घर वापस जाता हूँ
तो बहाना बनाकर तेरी गली से गुज़रता हूँ

मै रुक जाता हूँ
उसी पुराने जर्जर खंबे के पास
जहाँ कभी घंटो खड़े हो कर उपर देखा करता था

गली तो वैसी ही है
सड़क भी सकरी सी उबड़ खाबड़ है
दूर से लगता नही कि यहाँ कुछ भी बदला है

पर पहले जैसी खुशी नही
वो खिड़की जहाँ से चाँद निकलता था
अब वो सूनी -२ ही रहती है मेरे जाने के बाद से

मोहल्ले वालो ने कहा
कि उसने भी अब शहर छोड़ दिया
शायद इंतेजार करना उसे कभी पसंद ही ना था..

क्या सचमुच शहर छोड़ दिया?

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