Monday 17 July 2017

पर कौन सुनेगा उसकी ?

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

शाम को आने में थोड़ी देरी
हो गयी उसको
घर का माहौल बदल चुका
था एकदम
वो सहमी हुई सी डरी डरी
आती है आँगन में
हर चेहरे पर देखती है
कई सवाल

सुबह का खुशनुमा माहौल
धधक रहा था अब
उसके लिए बर्फ से कोमल हृदय में
दावानल सा लग रहा था
वो खामोश रह कर सुनती है बहुत कुछ
और रोक लेती है नीर को
आँखो की दहलीज पर

पहुचती है अपने कमरे में
जहाँ वो रो सकती है
यहाँ उसे डर नही लगता है
रोने में
जहाँ की दीवारो पर नमी
हमेशा बरकरार ही रहती है
उसकी सबसे अज़ीज दुनियाँ
उस कमरे में ही है अब तक

कभी वो वहाँ एक स्वपन देखती
है, जिसमे चुन लेती है अपना राजकुमार
कभी खुशी में नाचने लगती है
अनायस्स ही कुछ सोचकर
कभी कभी तो आंशू भी गिर जाते है
हस्ते हस्ते उसकी आँखो से

समुद्र की लहरो की तरह
विचार आते है उसके मन में  भी
वो एक डोर से बधी है
जिसका छोर बहुत से हाथों में है
वो उड़ना चाहती है पतंग की
तरह
पर अपने ही आसमान में जहाँ
बाज और गिद्धों का ख़तरा ना हो

वो बुनती है उड़ानो के बटन
ख़यालो की कमीज़ में
कभी वो ओढ़ लेती है दुपट्टा पुराना
जिस पर कभी सितारे हुआ करते थे
वो रेडियो जॉकी बनना चाहती है
पर घर में  गुमसुम  ही रहती है ||

वो बहुत कुछ कहना चाहती है
पर कौन सुनेगा उसकी ?

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