Sunday, 23 July 2017

एक प्लेटफार्म है

शहर की भीड़ भाड़ से निकल कर
सुनसान गलियों से गुजर कर
एक चमकता सा भवन
जहाँ से गुजरते है, अनगिनत शहर |

एक प्लेटफार्म है, जो हमेशा ही
चलता रहता है
फिर भी
वहीं है कितने वर्षो से |

न जाने कितनो  की मंजिल है ये
और कितने ही पहुंचे है
यहाँ से अपनी मंजिल
पर हर कोई  बे-खबर है |

कुछ लोग दिन गुजारते है कहीं
फिर शाम को लौट कर
बिछाते है प्लेटफार्म पर एक चादर
ये बन  जाता है, सराय |

रात के अँधेरे में चमचमाता
कई शहर  इंतजार में
उसी इंतजार में शामिल
आज मेरा भी नाम  || 

Monday, 17 July 2017

पर कौन सुनेगा उसकी ?

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

शाम को आने में थोड़ी देरी
हो गयी उसको
घर का माहौल बदल चुका
था एकदम
वो सहमी हुई सी डरी डरी
आती है आँगन में
हर चेहरे पर देखती है
कई सवाल

सुबह का खुशनुमा माहौल
धधक रहा था अब
उसके लिए बर्फ से कोमल हृदय में
दावानल सा लग रहा था
वो खामोश रह कर सुनती है बहुत कुछ
और रोक लेती है नीर को
आँखो की दहलीज पर

पहुचती है अपने कमरे में
जहाँ वो रो सकती है
यहाँ उसे डर नही लगता है
रोने में
जहाँ की दीवारो पर नमी
हमेशा बरकरार ही रहती है
उसकी सबसे अज़ीज दुनियाँ
उस कमरे में ही है अब तक

कभी वो वहाँ एक स्वपन देखती
है, जिसमे चुन लेती है अपना राजकुमार
कभी खुशी में नाचने लगती है
अनायस्स ही कुछ सोचकर
कभी कभी तो आंशू भी गिर जाते है
हस्ते हस्ते उसकी आँखो से

समुद्र की लहरो की तरह
विचार आते है उसके मन में  भी
वो एक डोर से बधी है
जिसका छोर बहुत से हाथों में है
वो उड़ना चाहती है पतंग की
तरह
पर अपने ही आसमान में जहाँ
बाज और गिद्धों का ख़तरा ना हो

वो बुनती है उड़ानो के बटन
ख़यालो की कमीज़ में
कभी वो ओढ़ लेती है दुपट्टा पुराना
जिस पर कभी सितारे हुआ करते थे
वो रेडियो जॉकी बनना चाहती है
पर घर में  गुमसुम  ही रहती है ||

वो बहुत कुछ कहना चाहती है
पर कौन सुनेगा उसकी ?

Saturday, 15 July 2017

कैसे जान पाओगे मुझको

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

अगर तुमने प्रेम नही किया
तो कैसे जान पाओगे मुझको

किसी को जी भरकर नही चाहा
किसी के लिए नही बहाया
आँखों से नीर  रात भर
किसी के लिए अपना तकिया नही
भिगोया कभी
नही रही सीलन तुम्हारे कमरे
मे अगर कभी
तो कैसे जान पाओगे मुझको ||

हृदय के अंतः पटल से
अगर नही उठी कभी तरंगे
नही बिताई रात अगर
चाँद और तारो के साथ
नही सुनी कभी नज़्म
साहिर, फ़ैज़ ग़ालिब, मीर , मज़ाज़ की
तो फिर तुम ही बताओ
कैसे जान पाओगे मुझको ||

अगर तुम तड़पते  नही की जैसे
चातक तरसता है बारिश के लिए
या मछली पानी से बाहर आकर,
तुम एक समुंदर के बीच पानी चारो ओर
पर उसमे से पी नही सकते
दो घूट भी तुम, महसूस  नही  किया है
भीड़ मे भी अगर तन्हा नही होते
नही करते अगर बातें  खुद से
तो कैसे जान पाओगे मुझको ||

Friday, 7 July 2017

दूसरो की तलाश में

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

जब भी भटकता हूँ किसी की तलाश में
थक कर पहुच जाता हूँ तुम्हारे पास में
तुम भी भटकती हो किसी की तलाश में
ठहर जाती हो आकर के मेरे पास में
हर दिन भटकते रहे चाहे इस दुनियाँ में
मिलते रहे आपस में दूसरो की तलाश में || 

Wednesday, 5 July 2017

कोई सहारा तो हो

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मिले नज़र फिर झुके नज़र, कोई इशारा तो हो
यो ही सही जीने का मगर, कोई सहारा तो हो ||

स्कूल दफ़्तर परिवार सबको हिस्सा दे दिया
जिसको अपना कह सके, कोई हमारा तो हो || 

उलझ गये है भँवर मे और उलझे ही जा रहे 
कोई राह नयी निकले, कोई किनारा तो हो || 

टूटे हुए सितारो से माँगते है सब फरियादें 
कुछ हम भी मांग ले, कोई सितारा तो हो ||

तुम्हे देख हर कोई नज़रिया बदल लेता है 
हम भी बदल .जाए, कोई नज़ारा तो हो || 

Sunday, 2 July 2017

दंगा

रेखा की इज़्ज़त लूटे और हमीर का घर जले
दंगा फिर हो कि, अख़बारो का कारोबार चले || 
#शिवदत्त श्रोत्रिय