Tuesday 10 January 2017

बेटी है नभ में जब तक

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

बेटी तुम्हारे आँचल में जहां की खुशियां भर देती है
तुम्हारी चार दीवारों को मुकम्मल घर कर देती है ॥

बेटी धरा पर खुदा  की कुदरत  का नायाब नमूना है
बेटी न हो जिस घर में, उस घर का आँगन सूना है ॥

बेटी माँ से ही, धीरे-धीरे माँ होना सीखती जाती है
बेटी माँ को उसके बचपन का आभास कराती है ॥

बेटी ने जुजुत्सा, सहनशीलता, साहस पिता से पाया
दया, स्नेह, विनम्रता, त्याग उसमे माँ से समाया ॥

बेटी, बाप की इज्जत,और माँ की परछाई होती है
फूल बिछड़ने  पर गुलशन से सारी बगिया रोती है ॥

बेटी को जब माँ बाप ने, घर से विदा किया होगा
महसूस करो कि सीने से कलेजा अलग किया  होगा ॥

किसी मुर्ख ने आज फिर बेटी को कोख में मार दिया
अपने हाथो, अपनी नाजुक वंश बेल को काट दिया ॥

बीज नहीं होगा जब बोलो, तुम  कैसे पेड़ लगाओगे
बेटी मार के जिन्दा हो, किस मुह से बहू घर लाओगे ॥

अन्नपूर्णा कहा मुझे पर, भूंख मिटा न पायी अब तक
तुम भी तुम बन कर जिन्दा हो, बेटी है नभ में जब तक ॥


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