Monday 17 April 2017

मगर ये हो न सका

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

मैंने एक ख्वाब देखा था, तुम्हारी आँखों में
हक़ीक़त बन जाये मगर ये हो न सका ||

एक कश्ती ले उतरेंगे समुन्दर की बाहों में
कोई मोड़ न होगा फिर अपनी राहों में
नीला आसमां होगा जिसकी छत बनाएंगे
सराय एक ही होगी ठहर जायेंगे निगाहों में
एक लहर उठाएँगी एक लहर गिराएगी
गिरेंगे उठेंगे मगर एक दूजे की बाँहों में ||
मगर ये हो न सका...

चलना साथ मेरे तुम घने जंगल को जायेंगे
किसी झरने किनारे कुछ पल ठहर जायेंगे
फूल, खुशबू, परिंदे और हवाओ का शोर
मगर एक दूजे की साँसे हम सुन पाएंगे
अम्बर ढका होगा जब पेड़ों की टहनियों से
कुछ रूहानी कहानियां आपस में सुनाएंगे ||
मगर ये हो न सका...

चलते साथ रेगिस्तान की उस अंतहीन डगर
आदि से अंत तक तुम्हारा हाथ थामे सफर
रेत की तरह न सूखने देंगे होठो को हम
निशा का घोर तम हो या कि फिर हो सहर
अनिश्चितताओं में निश्चिंत हो गुजरेगी रात
हम ही रहनुमां और हम ही हमसफ़र
मगर ये हो न सका......

होता भी कैसे मुकम्मल? एक ख्वाब था 
जमीं पर खड़े होकर माँगा माहताब था 
जलना था मुझे कि जब तक अँधेरा है 
पर कब तक जलता? एक चिराग था 
फिर भी अगर मिल जाते हम कहीं 
बराबर  कर देते बाकी जो हिसाब था 
मगर ये हो न सका ..... 

4 comments:

  1. Bahut sahi... Adi se ankh tak tumhara hath thame safar.. Waah

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    1. Bahut bahut aabhar, kuch Dino se man me tha ye rachana poori ki jaye, aaj jakar samay Mila.

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  2. acha kavitaye likhte hai aap... bhut hi sundar bichar hai aapke

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    1. Bahut bahut aabhar aapka, amulya pratikriya ke liye.

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