Wednesday, 11 October 2017

तुम्हे पढ़ना नहीं आया

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय


जिंदगी की क़िताब कुछ बिखरने सी लगी है
बेचने की ख़ातिर इसे  मुझे मढ़ना नहीं आया ||

लोग कहते है कि मुझे पत्थर गढ़ना नहीं आया
तुम्हे क्या ख़ाक लिखता तुम्हे पढ़ना नहीं आया ||

खुद से ही लड़ता रहा खुद की ही ख़ातिर में 
तुम्हारे लिए ज़माने से मुझे लड़ना नहीं आया ||

मेरे साथ और लोग थे सब आगे निकल गए
मै अब तक वही हूँ   मुझे बढ़ना नहीं आया || 

Sunday, 8 October 2017

कोई मजहब नहीं होता

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

तुम्हारे वास्ते मैंने भी बनाया था एक मंदिर
जो तुम आती तो कोई गज़ब नहीं होता ||

मन्दिर मस्ज़िद गुरद्वारे हर जगह झलकते है
बेचारे आंशुओं का कोई मजहब नहीं होता ||

तुम्हारे शहर का मिज़ाज़ कितना अज़ीज़ था
हम दोनों बहकते कुछ अजब नहीं होता ||

जिनके ज़िक्र में कभी गुजर जाते थे मौसम
उनका चर्चा भी अब हर शब नहीं होता ||

जब से समझा क्या है, अमीरी की क़ीमत
ख़ुशनसीब है वो पागल जो अब नहीं रोता ||  

Friday, 6 October 2017

कब नीर बहेगा आँखों में

सागर कब सीमित होगा
फिर से वो जीवित होगा
आग जलेगी जब उसके अंदर
प्रकाश फिर अपरिमित होगा ||
सूरज से आँख मिलाएगा
कब तक झूमेगा रातों में ?
कब नीर बहेगा आँखों में ?

छिपा कहाँ आक्रोश रहेगा
देखो कब तक खामोश रहेगा
ज्वार किसी दिन उमड़ेगा
 सीमाएं सारी तोड़ेगा
वो सच तुमको बतलायेगा
बातों से आग लगायेगा
एक धनुष बनेगा बातों का
बातों के तीर चलायेगा
कोई समझकर पुल गुजरेगा
कोई फसा रहेगा बातों में
कब नीर बहेगा आँखों में ?