कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
जिंदगी की क़िताब कुछ बिखरने सी लगी है
बेचने की ख़ातिर इसे मुझे मढ़ना नहीं आया ||
लोग कहते है कि मुझे पत्थर गढ़ना नहीं आया
तुम्हे क्या ख़ाक लिखता तुम्हे पढ़ना नहीं आया ||
खुद से ही लड़ता रहा खुद की ही ख़ातिर में
तुम्हारे लिए ज़माने से मुझे लड़ना नहीं आया ||
मेरे साथ और लोग थे सब आगे निकल गए
मै अब तक वही हूँ मुझे बढ़ना नहीं आया ||
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